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प्रशस्त होने का सहज उपाय है। इसे भ्रमित करने का प्रधान कारक तत्व दो स्वरूप में दिखती है - (1) लाभ और व्यापार (2) संग्रह और भोग। इससे यह भी पता चलता है कि परंपरा में लाभ के बाद लाभ, भोग के बाद भोग का सम्मोहन बढ़ता आया है। इस सम्मोहन को समीक्षीत करने योग्य जागृति को सुलभ करना ही आवर्तनशील अर्थचिंतन, विचार और शास्त्र की महिमा है। इसका आधार सर्वमानव स्वीकृत शुभाकांक्षा ही है। ऐसे शुभाकांक्षाओं को अर्थात् समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व को सभी राज्य संस्था, धर्म संस्था, व्यापार संस्था, प्रौद्योगिकी संस्था, विज्ञान समुदाय, ज्ञान समुदाय प्रकारान्तर से स्वीकार किया हुआ है।

मानव में शुभाशुभ प्रवर्तन का आधार मानसिकता ही है। सर्वत्र मानसिकताएं परंपराओं से अनुप्राणित होना पाया जाता है। परंपराओं को शिक्षा, संस्कार, संविधान और व्यवस्था के स्वरूपों, आशयों, अनुप्राणन प्रणालियों पर आधारित रहना पाया जाता है। दूसरे विधि से संस्कृति, सभ्यता, विधि व व्यवस्था उसका प्रेरक और अनुप्राणन प्रणालियों पर निर्भर होना पाया जाता है। इन दोनों प्रणालियों से अनुप्राणित मानव परंपरा दिखाई पड़ती है। इसका समीक्षा मूल्यांकन यहीं है अभी तक साक्षरता, विज्ञान, उपदेश, आस्था और आंकलानात्मक ज्ञान समेत परस्परता में कुण्ठा, निराशा, भय से होता हुआ, प्रलोभन से ग्रसित होता रहा। फलस्वरूप संग्रह भोग लिप्सा से तंत्रित होकर द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्ध के लिए तत्पर होता हुआ सर्वाधिक समुदायों को देखा गया। जबकि हर मानव सर्वशुभ कामना करता ही रहा, अभी भी कर रहा है। ऐसे सर्वशुभ घटित न होने का क्या कारण रहा इसको परिशीलन किया गया और पाया गया कि -

  • नित्य वर्तमान रूपी अस्तित्व को सटीक अध्ययन करने में हम मानव जाति असफल रहे हैं। इसके स्थान पर रहस्यमयी ईश्वर को अथवा ब्रह्म को ज्ञान रूप में स्वीकारा गया। इसी को सत्य भी कहा गया। ऐसा सत्य ज्ञान संपन्न व्यवहार गति देखने को नहीं मिला, जिससे समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व चरितार्थ नहीं हो सका। अतएव सर्वशुभ को चाहने और होने में सदा ही दूरी बना रहा।

अस्थिरता अनिश्चयता मूलक वस्तु केन्द्रित चिंतन को तर्क संगत विधि से विज्ञान मान लिया गया। विज्ञान को नियमों के रूप में प्राप्त कर, गणितीय भाषा सहित प्रयोग योग्य स्वरूप देना माना गया और उसे क्रियान्वयन करने की प्रक्रियाओं को तकनीकी कहा गया। यह सब मानवेत्तर संसार के साथ, वह भी पदार्थावस्था के साथ, अर्थात् मृत, पाषाण, मणि, धातुओं के साथ यंत्रीकरण, तंत्रीकरण, जल, थल, नभ प्रदेशों में स्वत्व गतिकरण कार्यकलापों के रूप में दिखने को मिलता है। ये सब उपलब्धियाँ विज्ञान का ही देन स्वीकारा गया है। उल्लेखनीय घटना यही है कि विज्ञान वैज्ञानिक नियमों और सिद्धांतों से मानव का अध्ययन सर्वतोमुखी विधि से सम्पन्न नहीं हो पाया है। फलस्वरूप अर्थशास्त्र

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