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बाद और लाभ की ओर गतित होना पाया जाता है। अभी तक लाभ का संतुष्टि बिन्दु कहीं, किसी देश काल में नहीं मिल पायी है। इस प्रकार अंतविहिन लाभ प्रक्रिया अथवा लाभ मानसिकता सहित सभी व्यापार विद्वान होना पाया जाता है। इससे और भी एक आकलन निष्पन्न होती है कि वस्तुओं का उत्पादन करने वाला सदैव ही गरीब रहना देखा गया।

लाभ पर आधारित व्यापार प्रणाली वस्तु और वस्तु मूल्य के साथ ही सीमित रहना पाया जाता है। इसी के साथ अर्थात् व्यापार संघ के साथ बैर विहिन परिवार, संघ या राष्ट्र या समुदाय ही नहीं बन पाया फलस्वरूप समुदाय चेतना और समाज चेतना के लिए प्रतिरोधक अथवा विरोधी मानस बन बैठा। उत्पादित वस्तुओं में गुणवत्ता और कला मूल्यों में (उत्पादित वस्तु का आकार-प्रकार, सजावट और सुरक्षा विधि) श्रेष्ठता जिससे मानव में जो अच्छा लगने की एक सहज क्रिया है उसके अनुसार स्वीकृत हो जाए। गुणवत्ता का तात्पर्य किसी भी वस्तु की कार्यशीलता, उपयोगिता के अर्थ में है। कार्यशीलता की निरंतरता मानव सहज रूप में अपेक्षित है। यह विशेषकर संपूर्ण प्रकार के यंत्रों आवास विधाओं में देखा जाता है। जहाँ तक अलंकार वस्तु होते है और आहार वस्तुएं आदि काल से अभी तक वैसे ही दिखाई पड़ती है। इस प्रकार आहार व्यवस्था, मानव इस धरती पर अवतरित रहने के पहले से ही समृद्ध रहा है, उसे पहचानने में मानव कुल को अवश्य समय लगा है। अलंकार और आवास संबंधी परिवर्तनों को अपनाता आया है। इसी के साथ सभी यंत्र निर्मित होने के उपरांत ही यह सभी व्यापार के फन्दे में फंसा ही है। व्यापार लाभ के फन्दे में लटका है। लाभ शोषण पूर्वक संग्रह, भोग, अतिभोग, बहुभोग की ओर धंसता ही जा रहा है। इसी के अनुरूप कला कलाकारियाँ और कलाविदों का एक खास पहचानने योग्य समुदाय भी तैयार हो चुकी है। जबकि ऐसे व्यापारविद समुदाय और कलाविद समुदाय कहीं भी उत्पादन के लिए चिन्हित रूप में सहायक नहीं हैं। इसी व्यापार के विस्तार के लिए ही अधिकांश अर्थशास्त्रों का प्रणयन हो चुकी है। इससे अनुप्राणित व्यापारी, कलाविद इन दोनों प्रकार के मानसिकता से राज्य संस्था और राजनीतिज्ञ प्रभावित होना पाया गया है। इतना ही नहीं धर्म, धर्मनीति और धर्मनीतिज्ञों - धर्मगद्दियों पर भी इन्हीं दो पक्ष का प्रभाव पड़ता हुआ अथवा इन्हीं दो पक्षों से यह प्रभावित होता हुआ दिखाई पड़ता है। इन सभी घटनाओं को ध्यान में लाने पर निष्कर्ष यही निकलता है :-

  • व्यापार विधि से समाज नहीं बन सकता।
  • व्यापार विधि से समुदायों में अन्तर्विरोध मिट नहीं सकता।
  • व्यापार विधि से बैर विहिन परिवार हो नहीं सकते, समझौते में भले ही सांत्वना पाते रहे।

व्यापार विधि से धर्म सफल नहीं हो सकता।

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