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अध्याय - 1

अर्थ को पहचानने की शुरूआत क्रम से अर्थ की परिभाषा/मान्यता

आर्वतनशील अर्थशास्त्र को हमें लोकमानस के सम्मुख प्रस्तुत करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ।

इसके पहले अभी तक व्यक्तिवादी समुदायों के रूप में गुज़री बीती मानव परंपरा में तत्कालीन विधियों से मानव को ही स्वीकृत अर्थ का स्वरूप, परिवार में आबंटन अथवा बंटन, समुदायों में विनिमय, आवश्यकता, संभावना, स्रोत और मानव से किया गया प्रवृत्तियों और कार्यों का सामान्य स्पष्टीकरण को उचित समझकर उसे भी प्रस्तुत किए हैं।

मूलत: आदिमकालीन मानव की परंपरा का संबंध वर्तमान से जुड़ा होना स्वाभाविक है। दूसरी भाषा से नियति सहज है। स्वाभाविक का तात्पर्य हर काल देश में मानव अपनी अपनी सीमा में ही ‘स्व’ को स्वीकार करता हुआ इस धरती पर जीया हुआ है। इसका प्रमाण क्रमागत रूप में पायी जाने वाली पीढ़ी से पीढ़ी ही है। नियति का तात्पर्य विकास क्रम, विकास और जागृति क्रम, जागृति से है। जागृति का तात्पर्य जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने वाला मानव ही है।

जब कभी भी एक से अधिक मानवों का होना सान्निध्य रूप (सान्निध्य का तात्पर्य साथ-साथ रहने से हैं) में होता है, तभी एक-दूसरे की पहचान होना स्वाभाविक है। संचेतनशीलता सहज मानव में पहचानने की क्रिया ही न्यूनतम संचेतना का प्रमाण है और संबंधों की पहचान भी न्यूनतम संचेतना का द्योतक है। इसका प्रमाण है, आज भी प्रत्येक स्वस्थ मानव, न्यूनतम रूप में आसपास की चीजों को पहचानता है। आस-पास का तात्पर्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधेन्द्रियों की पहुँच की सीमा है। संचेतना का तात्पर्य भी जानने, मानने, पहचानने एवं निर्वाह करने से है। इस प्रकार इस धरती पर आदिमानव शरीर रचना बंदर, भालू आदि किसी जीव जानवरों के शरीर में रचित होकर धरती में स्थापित होना स्वाभाविक रहा। क्योंकि इस धरती में मानव शरीर रचना के पहले किसी एक प्रजाति के जीव शरीर रचना और उसकी परंपरा स्थापित होने के उपरान्त दूसरे प्रजाति की शरीर रचना सहित परंपरा विधियों से विकसित होना देखा जाता है। मेधस युक्त शरीरों में समृद्ध मेधस युक्त शरीरों के क्रम को इस धरती पर देखा जा सकता है। इसी क्रम में मानव शरीर रचना का भी उद्भूत होना, मेधस रचना क्रम एवं उसकी परिपूर्णता के अर्थ में मानव शरीर में ही सर्वोपरि समृद्ध मेधस रचना एवं उसके अनुरूप शरीर कार्य तंत्र स्पष्ट हो चुका है। इसी के साथ यह भी स्पष्ट है कि मानव शरीर रचना के पहले की जितने भी प्रकार के शरीर रचनाएं प्रस्तुत हैं वे भी समीपस्थ

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