स्वायत्त मानव परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होना सहज है। स्वायत्त मानव का स्वरूप स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन और व्यवहार में सामाजिक और व्यवसाय में स्वावलंबन। यह सब आवश्यकता के रूप में समीचीन रहता ही है। इसकी आपूर्ति अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान पूर्वक सम्पन्न होना पाया जाता है। फलस्वरूप परिवार मानव पद आवश्यंभावी होती है। ऐसा स्वायत्त मानव कम से कम दस संख्या में मिलकर साथ-साथ जीने की कला को जीने देकर जीने के रूप में प्रमाणित करता है। दूसरे विधि से हर परिवार जागृत मानव संबंधों को पहचानते हैं, मूल्यों का निर्वाह करते हैं, मूल्यांकन करते हैं और उभय तृप्ति पाते हैं। साथ ही परिवारगत उत्पादन-कार्य में एक दूसरे के लिए पूरक होते हैं, फलस्वरूप आवश्यकता से अधिक उत्पादन प्रमाणित होता जाता है। यही समृद्धि का आधार-सूत्र है। इस प्रकार जो दस व्यक्ति रहेंगे साथ में सभी उम्र के होंगे ही, ये सब स्वायत्ततापूर्ण, स्वयात्तशीलता के रूप में देखने को मिलता है। स्वायत्त मानव का परिवार मानव होना स्वाभाविक है। क्योंकि सहअस्तित्व में ही स्वायत्तता का प्रमाण होना स्वीकार्य रहता है। इसी क्रम और विधि से परिवार समूह, ग्राम, ग्राम समूह, क्षेत्र, मंडल, मंडल समूह, मुख्य राज्य, प्रधान राज्य और विश्व राज्य परिवार और व्यवस्था के रूप में स्वरूपित होना सहज है। इसकी आवश्यकता समीचीन है। परिवार को ही दूसरे भाषा में समाज कहा जाता है। मानव संबंध बोध विधि से ही मूल्य निर्वाह और मूल्यांकन, चरित्र और नैतिकतापूर्वक सम्पन्न होना मानव में ही देखा जाता है। इसी सत्यतावश आवर्तनशील अर्थव्यवस्था स्वाभाविक रूप में सार्थक होता है। मूल्य, चरित्र और नैतिकता क्रम में सर्वमानव वैभवित होना चाहता ही है। सफल होने में अभी तक जो अड़चन थी वह केवल व्यक्तिवादी एवं समुदाय चेतना, सामुदायिक श्रेष्ठता का भ्रम। फलस्वरूप समुदाय, वर्ग संघर्ष, प्राकृतिक देन-ईश्वरीय देन मान लेना ही रहा। अभी यह सौभाग्य समीचीन हो गया है कि मानव मानवीयता को सार्वभौम आचरण के रूप में पहचानना-निर्वाह करना, जानना और मानना सहज हो गया है। अतएव आवर्तनशील स्वरूप, कार्य और प्रयोजन को समझना और उसे प्रमाणित करना आवश्यक है ही। आवर्तनशीलता का स्वरूप मूलत: विभिन्न आयामों में, विभिन्न मूल्यों के आधार पर ही प्रयोजित होना पाया जाता है। जैसे सहअस्तित्व में जीवन मूल्य, मानव मूल्य आवर्तित होता है। प्रामाणिकता सहज विधि से जीवन मूल्य सफल होता हुआ देखा गया है। सार्वभौम व्यवस्था क्रम में मानव मूल्य सहज सार्थक होना स्पष्ट है और अखण्ड समाज में भागीदारी स्वयं समाज मूल्य यथा स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य, उपयोगिता मूल्य, कला मूल्य आवर्तनशील होना पाया जाता है। इसमें से उत्पादनपूर्वक यथा निपुणता, कुशलतापूर्ण जीवन शक्तियों को हस्त लाघव सहित (शरीर के द्वारा) प्राकृतिक ऐश्वर्य पर स्थापित करने की क्रियाकलाप को उत्पादन कार्य नाम है। यह प्रसिद्ध है। सबको विदित है। ऐसे उत्पादित वस्तुओं को दूसरे से उत्पादित किया गया वस्तु को पाने के क्रम में हस्तांतरित कर लेना अर्थात् लेन-देन
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