संग्रह, संघर्ष, भोगाभिलाषाओं को पूरा करने के लिए सुदूर विगत से प्रयत्न किया। ये अभिलाषाएँ कहीं अपने तृप्ति बिन्दु तक पहुँच नहीं पायी। तृप्ति सर्वसुलभ होने की स्थिति बन नहीं पायी। इससे सुस्पष्ट है मानव-मानव को, अस्तित्व को, जीवन को, जागृति को न समझते हुए भी विद्वता का अर्थात् ज्ञानी-विज्ञानी होने को स्वीकार करता रहा। उक्त चारों मुद्दों से इंगित तथ्य अभी तक न तो शिक्षा में आया है, न तो शिक्षा में प्रचलित है, न ही व्यवहार में मूल्यांकित है, इतना ही नहीं राज्य संविधानों में और धर्म संविधानों में उल्लेखित नहीं हो पाया है। व्याख्यायित-सूत्रीत नहीं हो पाया है। इन गवाही के साथ उपर किया गया समीक्षा स्पष्ट हो जाता है। जीवन, जीवन जागृति, सहअस्तित्व और मानव के अध्ययन के उपरान्त ही जीवन और जागृति सर्वमानव में, से, के लिए समानता का तथ्य लोकव्यापारीकरण होना दिखाई पड़ती है। यहाँ समझने का तात्पर्य समझाने योग्य परंपरा से ही है। शिक्षा-संस्कार परंपरा ही इसके लिए प्रधान रूप में उत्तरदायी है।
आवर्तनशीलता सहज अध्ययन क्रम में निपुणता, कुशलता, पाण्डित्य सम्पन्न अथवा पारंगत मानसिकता पूर्वक शरीर के अंग-अवयव संयोजन पूर्वक प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन के क्रियाकलापों को देखते आ रहे हैं। इसी का मूल्यांकन क्रम में उपयोगिता मूल्य, कला मूल्य का स्वरूप स्थापित होना और उसका मूल्यांकन होने की अनिवार्यता है। क्योंकि वस्तुओं के उत्पादन में यही क्रियाकलाप, प्रणाली, पद्धति हर मानव से संपादित होना देखने को मिलती है। उत्पादित सभी वस्तुएं मानव के संदर्भ में उपयोगी है।
सम्पूर्ण वनस्पति संसार पुष्टि धर्म होना पाया जाता है। इसी क्रम में पुष्टि द्रव्यों को और उसके संरक्षण द्रव्यों को मानव अपने अध्यवसायिक और प्रयोगशील विधियों से पहचानते आया है, पहचान रहा है, आगे भी मानव परंपरा में इस प्रकार की पहचान कार्यकलाप अक्षुण्ण रहेगी। मानव का अध्यवसायिक अभिलाषा अर्थात् अध्ययन करने की अभिलाषा सहज रूप में ही सभी वस्तुओं को उस-उसके स्वरूप में, से, के लिए जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने की प्रवृत्ति और प्रयास मानव में देखने को मिलता है।
मानव अपने शोध-अनुसंधान और प्रयोग क्रम में पुष्टि संरक्षण और विपुलीकरण कार्यों को पहचानने के लिए मूल आधार बीज-वृक्ष विधि को पहचानता है और इसका अंतर्संबन्धों को पहचानने के क्रम में इस क्रियाकलाप अर्थात् एक बीज-वृक्ष में होने की क्रियाकलाप के क्रम में धरती, जल, वायु, ऊष्मा के संयोग को पहचानना सहज है। ऐसे संयोग के साथ-साथ धरती में उर्वरक शक्ति की आवश्यकता, अनुपात और उसकी आपूर्ति विधि स्वाभाविक रूप में हमें पता लगता है। इस मुद्दे पर मानव पूरकता को उर्वरक संग्रहण विनियोजन कार्य के रूप में देखा जाता है। मानव के द्वारा उर्वरक संपादन क्रम में वनस्पति संसार के अवशेषों द्वारा, संग्रहण करने का कार्य और विनियोजन करने का कार्य सदा-सदा काल से ही देखने को