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पहुँचता है इसका प्रमाण मिल चुका है। इसको हम एक स्कूल में तैयार कर पायें हैं। इसके शुभ परिणामों को देखते हुए इसके लोकव्यापीकरण की आवश्यकता है।

नासमझी के बिना कोई मानव कुकृत्य करता नहीं है। मेरे अनुसार हर व्यक्ति शुभ चाहता है और शुभ के लिए जिम्मेदार है। फलस्वरूप कभी न कभी सर्वशुभ के प्रति जिम्मेदारी महसूस करेगा। यह सर्वशुभ को महसूस करने के अर्थ में ही जीवन जागृति की बात आती है। सुविधा संग्रह से मुक्ति और भक्ति-विरक्ति के स्थान पर स्वस्थ समाज की रचना के लिए ही समझदारी की बात, जीवन जागृति की बात छेड़ने का मन आया। बुद्धि में होने वाली बोध और संकल्प क्रिया का प्रमाणीकरण तभी हो पाता है जब बुद्धि में न्यायबोध, सत्य बोध, धर्म बोध हो जाए। जब ये तीनों बोध हो जाते हैं तो बुद्धि को सद्बुद्धि कहते हैं। फलस्वरूप सर्वशुभ की जिम्मेदारी को मानव स्वीकार करता है। अस्तित्व को समझने पर सहअस्तित्व के रूप में नित्य वर्तमान होना हमको बोध होता है। जिसका हम अध्ययन कराते हैं।

इसकी एक झलक गणितीय विधि से विखंडन विधि को पता लगाया। विखंडन विधि को ज्यादा से ज्यादा शक्तिशाली अणुबम बनाने के लिए पता लगाया। एटम बम बनाने का प्रयोजन सिवाए नाश के कुछ हो नहीं सकता। नाश तो जितना किया (जैसे हिरोशिमा) इसके अलावा नाश करने के लिए बार-बार जो प्रयोग किए इससे वातावरण की अधिक क्षति हुई है। ये किया मुट्ठी भर लोगों ने, भोगेंगे 700 करोड़ों। नाश करने के लिए जो किया उससे सामान्य आदमी क्षतिग्रस्त हुआ, कैसे? गणितीय विधि से ‘वर्तमान’ शून्य-प्राय: हो जाता है और ‘वर्तमान’ की तादाद नहीं मिलती है। जबकि है इससे उल्टा, नित्य वर्तमान ही है। वर्तमान के अलावा कुछ होता ही नहीं है। अस्तित्व का सारा वैभव नित्य वर्तमान है जबकि विखंडन विधि से वर्तमान है ही नहीं। इस ढंग से झूठ का पुलिंदा इतना बना चुके हैं कि उससे उभरने के लिए मानव को अपने ऊपर विश्वास करना होगा। जब तक मानव एटम बम पर, तलवार पर, झंडा पर, पत्थर पर विश्वास करेगा तब तक तो आदमी आदमी पर विश्वास करेगा नहीं, यह सच्चाई है और स्वयं पर तब विश्वास होगा जब स्वयं को समझेगा। स्वयं को समझने के लिए हर नर-नारी स्वयं में न्याय, धर्म, सत्य को सटीक समझना होगा यह जीवन प्रकाशन है। न्याय कहाँ से समझ में आता है संबंध के आधार पर, धर्म कहाँ से आता है व्यवस्था से, सत्य कहाँ से आता है अस्तित्व से। सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है, सहअस्तित्व के ढंग से। मानव को छोड़कर शेष तीनों अवस्थाओं के संपूर्ण वैभव व्यवस्था में ही हैं।

मानव में भी ‘व्यवस्था’ में होने की तरस किसी न किसी अंश में निहित ही है। भ्रमित (प्रचलित) पाठ्य पुस्तकों के पढ़ने से व्यवस्था का बोध होता नहीं है। व्यवस्था के बोध के बाद व्यवस्था में जीने के साथ ही मानव, धर्म को निभाने में योग्य हो जाता है। मानव धर्म ‘व्यवस्था’ में जीना ही है। अस्तित्व में हर वस्तु का

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