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हम समाधानित हों हमारे पास कोई भौतिक वस्तु न रहे ऐसा हो नहीं सकता। समाधान के साथ भौतिक वस्तु भी अपनी समृद्धि के अर्थ में समाहित रहती है यह परिवार में स्पष्ट है। इस संतुलित विधि से हम सुखी होने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इन्हीं आवश्यकता को धार्मिक आवश्यकता कहते हैं। अभी तक कोई भी संप्रदायगत रूढ़ियाँ न तो सार्वभौम हुई और न आगे होगा। सार्वभौम होना एक ही बात का होगा कि मानव का व्यवस्था में जीना, सर्वशुभ, सुख। मानव व्यवस्था में जीना और समग्र व्यवस्था में भागीदार होना हमको समझ में आता है। हमसे किसी को परेशानी होती नहीं है। इस प्रकार से हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि मानव धर्म समाधान पूर्वक सुख है। व्यवस्था के रूप में जीने के फलस्वरूप हम निरंतर समाधानित रहते हैं और निरंतर सुखी रहते हैं। जीवन ही सुखी होता है तो व्यवहार में समाधान प्रमाणित हो जाता है। व्यवहार में प्रमाणित होने के कारण ही यह स्वीकार पाते हैं कि मनुष्य सुखी है।

मानव समाधान सहित स्वभाविक रूप में चाहे काले हों, गोरे हों, बली हों, निर्बली हों, धनी हों, गरीब हों, सभी लोग सुखी होना चाहते हैं इसमें कोई दो मत नहीं है। सुखी होने की प्रक्रिया के बारे में बताया गया अभी तक इन्द्रिय संवेदना में सुख खोजने की बात आदि काल से हुआ किन्तु उससे संभव नहीं हुआ। फलस्वरूप समझदारी के आधार पर सुखी होने की बात अभी स्पष्ट हुई है। मानव स्वयं को और अस्तित्व को समझ ले यही समझदारी है।

अस्तित्व एक शाश्वत सत्य है, न घटता है, न बढ़ता है, इसका क्या प्रमाण है? अभी हमारे सामने जितना भी है वर्तमान है। वर्तमान कभी समाप्त होता नहीं वर्तमान निरंतर बना ही रहता है। इस धरती पर चारों अवस्था रहे या एक अवस्था। न्यूनतम एक अवस्था बना ही रहता है। भौतिक वस्तुएं निरंतर बनी ही रहती है इनका कभी नाश नहीं होता। भौतिक वस्तु ही रासायनिक वस्तु में प्रकाशित होते हैं जिसे रासायनिक उर्मि कहते हैं। दो तरह के वस्तु मिलकर अपना अपना आचरण त्यागकर तीसरे तरह का आचरण बनाना यह रासायनिक उर्मि है। रासायनिक उर्मिवश ही तमाम प्रकार की प्राणावस्था की वस्तुएं निर्मित हुई हैं। रासायनिक वस्तु से प्राण कोशा, प्राण सूत्र, रचना विधि तीनों अपने आप में संपन्न होती है। इसमें संसार के किसी इंजीनियर, डाक्टर, बुद्धिमान आदमी का योगदान नहीं है। इससे पता लगता है कि अस्तित्व में विकासक्रम की सीढ़ियाँ लगी ही हुई है। मानव भी विकासक्रम में एक सीढ़ी है। ये हम, आपको समझ में आता है। यदि मानव अपने ही क्रमानुसार, क्रियानुसार, विचारानुसार व्यवस्था में जी नहीं पाता है तो मानव के जीने के अनुकूल यह धरती रह नहीं जायेगी तो मानव समाप्त हो जायेगा। किन्तु बाकी यथावत बनी रहेगी भौतिक रासायनिक वस्तुएं वैसी ही रहेगी मानव जाति विदा हो जायेगी। अस्तित्व में कोई हानि लाभ होता नहीं। अर्थात् अस्तित्व न घटता है न बढ़ता है। अस्तित्व में चारों अवस्थाएं निरंतर बना ही रहता है

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