जीवन विद्या
जीवन को मैं समझा हूँ, आपको समझाने का प्रयास यहाँ से शुरू होता है। इस प्रक्रिया का नाम “जीवन विद्या” है। पहले आपको स्पष्ट करना चाहते हैं जीवन में समानता नित्य विद्यमान है। जीवन क्या चीज है इस बात को हर व्यक्ति जानना, मानना चाहता है और उसके फल-परिणामों को प्रमाणित करना चाहता है यह इसका मूल उद्देश्य है। ‘जीवन’ न भौतिक है न अभौतिक है। ‘जीवन’ परमाणु है, गठनपूर्ण परमाणु चैतन्य इकाई है। गठनपूर्णता क्या है? इस परमाणु में न तो विस्थापन होता है और न ही प्रस्थापन होता है। जबकि भौतिक रासायनिक रूप में जो भी परमाणु है उनमें समाहित अंशों में प्रस्थापन-विस्थापन होना पाया जाता है इसे ही हम “परिणाम” कहते हैं। परमाणु में निहित अंशों की संख्या में परिवर्तन होता है। वही परिवर्तन है और कोई परिवर्तन संसार में होता ही नहीं है। आदमी जब भी कोई परिवर्तन करा सकेगा तो परिणामशील परमाणुओं के अंशों में परिवर्तन ही करा पायेगा। इन परमाणुओं की दो प्रजातियाँ होती है - एक भूखा परमाणु, दूसरा अजीर्ण परमाणु। जिन परमाणु में तृप्त होने के लिए कुछ अंशों की भूख (आवश्यकता) बनी रहती है साथ में हर परिणाम अपने में यथा स्थिति संपूर्णता स्पष्ट होता है उन्हें भूखा परमाणु कहा गया। ऐसे परमाणु जिनमें कुछ अंश बहिर्गमित होना चाहते हैं उन्हें अजीर्ण परमाणु कहा है। इस तरह परमाणु दोनों तरह के तृप्त होने के अर्थ में ही क्रियाशील रहते हैं।
वह तृप्त परमाणु है गठनपूर्ण परमाणु। यह गठनपूर्ण परमाणु ही चैतन्य इकाई है। चैतन्य इकाई नाम इसलिये दिया कि संज्ञानशीलता-संवेदनशीलता द्वारा मानव परंपरा में ही प्रमाणित करने की शक्ति जीवन में है। जीवन के अभाव में यदि शरीर रचित भी कर लें तो संवेदनशीलता को ही प्रमाणित नहीं कर सकेंगे। संज्ञानशीलता तो दूर की बात है। इस ढंग से मानव संवेदनशीलता, संज्ञानशीलता को प्रमाणित करने के क्रम में ही व्यवस्था में जी पाता है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी कर पाता है। बस यह छोटा-सा काम है। संवदेनशीलता को जीवावस्था के सभी जीव-जानवर प्रमाणित करते हैं। मानव संज्ञानशीलता को प्रमाणित किये बिना तृप्त होता नहीं है, सुखी होता नहीं है, चाहे जितना भी सिर कूट ले।
मानव सुखी होना ही चाहता है। सुखी होने के क्रम में कभी हम सोचते हैं कि सुविधा संग्रह से सुखी हो जायेंगे, कभी जप-तप, भक्ति-विरक्ति से सुखी हो जायेंगे। सभी आदमी सुखी होने के लिये कोई-ना-कोई प्रयास करते ही है किन्तु इन प्रयासों से किसी को तृप्ति हुआ और निरंतर सुख मिला, इसका प्रमाण मिला नहीं। अब सुखी होने के क्रम में जैसा मैं सुखी हुआ समझदारी के आधार पर; मैं सोचता हूं, हर व्यक्ति