प्रक्रिया परिपूर्ण रहना आवश्यक है। अनुसंधान के लिये अज्ञात प्रश्न चिन्ह अति आवश्यक है। हर अनुसंधान को अध्ययन और अध्यापन कार्य विधि से लोकव्यापीकरण होना सुगम हो जाता है। इस प्रकार अनुभव के अनन्तर ही अनुभव ‘बोध’ होना देखा गया है। यह हर व्यक्ति में होना समीचीन है।
जीवन सहज जागृतिपूर्ण प्रक्रिया में देखा गया है कि सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में आत्मा ही अनुभूत होता है। फलस्वरूप आत्मा सहज मध्यस्थ क्रिया ही मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्ति के रूप में प्रभाव क्षेत्र का होना देखा गया है। इसी प्रभाव क्षेत्र वश ‘अनुभव’ का बोध बुद्धि में ‘अनुभव’ का साक्षात्कार चित्त में ‘अनुभव’ का सार्थकता तुलन रूपी वृत्ति में (न्याय, धर्म, सत्य) और ‘अनुभव’ का आस्वादन (मूल्य रूप में) मन में प्रभावित और स्वीकृत होता है। उसी क्षण से ‘निष्ठा’ की निरन्तरता पायी जाती है। ‘निष्ठा’ का तात्पर्य अनुभव प्रभाव का निरंतरता में ही जीवन की सभी क्रियाएँ अभिभूत रहने से है। अनुभव प्रभाव क्षेत्र स्वयं ही निरंतर होना पाया जाता है क्योंकि अस्तित्व में अनुभव से अधिक कुछ शेष नहीं है। सम्पूर्ण अस्तित्व ही अनुभव गम्य होने के आधार पर मध्यस्थ क्रिया का प्रभाव क्षेत्र सदा-सदा के लिए जीवन क्रिया रूपी समस्त परावर्तन-प्रत्यावर्तन क्रिया में संतुष्ट, तृप्त, समाधानित होना देखा गया है। यही जीवनापेक्षा सहज सुख, शांति, संतोष, आनंद से भी इंगित है।
जीवन जागृति सहज महिमा ही है मानवापेक्षाओं को परंपरा में साक्षित कर देता है। परंपरा में साक्षित करने का एक ही उपाय है - व्यवहार। मानव परंपरा में व्यवहार प्रमाण को प्रस्तुत करते समय शरीर का होना सहअस्तित्व सहज व्यवस्था है। इसीलिये जागृत जीवन परंपरा में ही अथवा जागृतिपूर्ण परंपरा में ही हर परिवार मानव समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को साक्षित कर देता है, सत्यापित कर पाता है। हर व्यवहार में ऐसा सत्यापन मूल्यांकित होता है। इन तथ्यों के आधार पर जागृतिपूर्ण मानव परंपरा की आवश्यकता, उसकी संभावना और इन दोनों का संयोग विधि समीचीन है।
ऊपर कहे गये तथ्यों, विश्लेषणों, संप्रेषणा के अनुसार यह सुस्पष्ट है कि मानव कुल का शरण और रक्षा अनुभवमूलक परंपरा पर ही आधारित है। इसमें और चूकने की स्थिति में मानव का इस धरती पर होने के मुद्दे पर ही प्रश्न चिन्ह लग चुका है।
अनुभवमूलक परंपरा ही न्याय, धर्म (अखण्ड समाजिकता), सत्यपूर्ण प्रणाली, पद्धति, नीति सहित विधि से सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी होना स्वाभाविक है। मानव कुल में यह तीनों स्त्रोत अर्थात् न्याय, धर्म, सत्य अक्षुण्ण रूप में मध्यस्थ नित्य वैभव होना देखा गया है। अस्तित्व अक्षुण्ण रूप में मध्यस्थ विधि से ही कार्यरत है। इसीलिये अस्तित्व में अनुभव सहज फलन ही है मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्तियों का प्रभावित होना। मूलत: मध्यस्थ प्रभाव क्या है? इसका उत्तर अस्तित्व में यही है सम-विषमात्मक