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इस ग्रंथ से

  • भ्रमित स्थिति में मानवीयता के विपरीत जीवों के सदृश्य जीना देखने को मिलता है, जबकि मानव की मौलिकता मानवीयता ही है। जागृति सहज विधि से मानवीयता स्वयं-स्फूर्त विधि से प्रमाणित होती है।
  • अनुभव (जागृति) के पश्चात् नैतिकता पूर्वक मानव व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह कर पाता है, चरित्रपूर्वक व्यवहार करता है और संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्तिपूर्वक जी पाता है। यही सुख, सुन्दर और समाधानपूर्वक जीने की कला का स्वरूप है।
  • जागृति के अनन्तर हर व्यक्ति स्वाभाविक रूप में असंग्रह प्रतिष्ठा को समृद्धिपूर्वक, स्नेह प्रतिष्ठा को पूरकतापूर्वक, विद्या प्रतिष्ठा को जीवन विद्यापूर्वक, सरलता प्रतिष्ठा को सहअस्तित्व दर्शनपूर्वक, अभय प्रतिष्ठा को मानवीयतापूर्ण आचरणपूर्वक वैभवित होने के लिए कार्य करता हुआ देखने को मिलता है।
  • जागृत जीवन ही ज्ञाता है, जीवन सहित सम्पूर्ण अस्तित्व ज्ञेय है और जागृत जीवन का परावर्तन क्रियाकलाप ही ज्ञान है।
  • आशा बंधन इन्द्रियों द्वारा सुखी होने के रूप में, विचार बंधन व्यक्ति द्वारा अपने विचारों को श्रेष्ठ मानने के रूप में और इच्छा बन्धन रचना कार्य की श्रेष्ठता को स्पष्ट करने के रूप में होता है।
  • जीवन नित्य होने के कारण अस्तित्व में ही वर्तमान रहता है। यही मानव शरीर यात्रा समय में मानव कहलाते हैं, शरीर त्यागने के उपरांत यही देवी, देवता, भूत-प्रेत कहलाते हैं।
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