ही है। विशेषज्ञता के आधार पर यह बात गले से उतरती नहीं है। अतएव विशेषज्ञता से जुड़ी हुई अधिकांश छोर सहअस्तित्व विरोधी होना पाया जाता है। हर विशेषज्ञ यह मानकर ही चलता है कि अनेक पुर्जों से एक इकाई की रचना है। इस तथ्य को पदार्थावस्था से बनी हुई यंत्रों में प्रमाणित किया गया। इसी तर्क को प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था में प्रमाणित करने के लिए अनेकानेक अनुसंधान कार्य बीजानुषंगीय और वंशानुषंगीय सिद्धांत के आधार पर सम्पन्न होते आये। बीजानुगत वनस्पति संसार दृष्टव्य है। वंशानुगत विधि से जीव शरीर और मानव शरीर की रचना होना देखा जाता है। यहाँ मुख्य तत्व प्राणावस्था की रचना, बीजानुषंगीय विधि को लेकर विश्लेषण और निष्कर्ष निकालने का आशय है। इसी क्रम में विशेषज्ञता अन्न, वनस्पतियों के विपुलीकरण और पुष्टिवर्धन विधियों को अनुसंधान करने की कार्यक्रमों को सम्पन्न करते आये। इस क्रियाकलाप के मूल में व्यापार मानसिकता प्रधान रही। इस व्यापार विधि से बीज गुणन कार्यों के लिए रासायनिक उर्वरकता और कीटनाशक द्रव्यों मानव और जीव शरीरों के लिए प्रतिकूल को वनस्पतियों में संग्रहण करने के लिए प्रस्तुत करना एक आवश्यकता बनी। इन्हीं द्रव्यों के चलते तादात बढ़ी। जबकि घोषणाएं बीजगुणन की रही है जो बीजों में गुण रहती है। उसको विपुल बनाने के लिए सारे आश्वासन और प्रक्रिया को स्थापित किया गया। इस मुद्दे पर पूर्णतया विफल होने के उपरान्त भी बीजगुणन का नारा रसायन खाद का भरमार उत्पादन, इन रासायनिक खादों से धरती का अम्लीय और क्षारीय उन्माद को बढ़ाने का कारण तत्व को स्वीकारने के बावजूद भी अनेक उर्वरक कारखाने स्वचालित विधि से प्रक्रिया कराने के लिए तत्पर हो गये। मानव में लाभोन्माद होने के कारण विनाशकारी अनिष्टकारी कार्यों को छोड़ना बन नहीं पा रहा है। इस व्यापारिक अर्थात् लाभोन्मादी विधि से स्थापित यंत्रीकरण विधि भी व्यापार आधारित रहा। इस प्रकार कृषि के सभी ओर व्यापारीक मानसिकताएं इस त्रासदी का आधार बन चुका है।
ऊपर कहे गये अत्याधुनिक प्रणालियों से किये जाने वाले सभी कृषि कार्य पराधीनता के साथ जुड़ चुकी है। यथा बीज, खाद, जोत, गहाई, मिसाई, बोआई, इन सभी विधाओं में स्वायत्तता के स्थान पर पराधीनता ही स्थापित हुई। जबकि कृषि, गोपालन, कुटीर उद्योग, ग्राम शिल्प, ग्रामोद्योग में स्वायत्तता प्रधान तत्व है। जागृत मानव प्रकृति सहज स्वतंत्रता और स्वराज्य स्वायत्तता विधि से ही प्रमाणित हुए है, यहाँ तक यहीं देखने में मिलता है, जीवन ज्ञान रूपी विद्या, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान एवं मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान से मानव स्वायत्त हो जाता है। फलत: परिवार मानव होना सहज है, तभी वैर विहीन परिवार मानव विधा से विश्व परिवार मानव विधाओं तक स्वयं एक व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने योग्य होता है। यह सभी वैभव स्वायत्त मानव होने का ही संप्रभुता और उसकी अक्षुण्णता है। स्वायत्त मानव की पहली सीढ़ी स्वयं में विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, दूसरे सीढ़ी में प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, तीसरी सीढ़ी में व्यवहार में सामाजिक व्यवसाय में स्वावलंबी होने योग्य अपने में समृद्धि को पा लेना ही स्वायत्त