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में आता नहीं। विज्ञान ने यांत्रिकता को ही सटीक माना है इसको आदमी समझ सकता है, झेल सकता है। आदर्शवादियों ने संवेदनशीलता को नकारने की वकालत की। संवेदनशीलता को आदमी समझ नहीं सकता, झेल नहीं सकता। दोनों वादों में दूरियाँ बरकरार है। इस तरह एक के बाद एक समस्या में मानव जकड़ता गया। समस्या के साथ ही शरीर यात्रा को समाप्त करते हैं। कुल मिलाकर हमारी इस ढंग से स्थिति बनी है। अभी जो मैं मानव कुल के समक्ष प्रस्ताव रख रहा हूँ वह मानव जाति का ही पुण्य है ऐसी मेरी स्वीकृति है। मैंने जो परिश्रम किया उसका मैं, मूल्यांकन करता हूँ वह इतने बड़े फल (जितना हम पा गये) के योग्य नहीं है। जैसे अमरूद के पेड़ में एक टन का फल लग जाये तो पेड़ टूट जायेगा ऐसा देखा जा सकता है। उसी भांति हमारे साथ ऐसी ही घटना घट गयी है। हमारे परिश्रम से अधिक यह बात है। इस परिश्रम को कौन डुहारता है यह बात इसमें मुख्य है। मानव में परिश्रम से अधिक फल को कौन डुहारता है उसे हमने सटीकता से देखा है। जीवन डुहारता है। जीवन ऐसे फल को लेकर चलने में समर्थ है, कैसे? जीवन को हम अक्षय बल, अक्षय शक्ति के रूप में देखा है। आपको भी अध्ययन कराते हैं। आपकी जिज्ञासा हुई तो आप भी समझ सकते हैं, समझा सकते हैं। हमारा विश्वास है कि आपको समझने की जरूरत है। इसलिये आप समझेंगे ही। यह बात समझ में आती है कि जीवन, शरीर के माध्यम से जो कुछ भी तय करता है वह शरीर की आवश्यकता से अधिक हो ही जाता है। यह सहज प्रक्रिया है। मैंने जीवन को देखा है; मानव को जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में देखा है। अभी तक मानव जीवन को और अस्तित्व को अध्ययन विधि से समझाने में असमर्थ थे। विज्ञान जहाँ भी अस्तित्व बोध कराने गया हर जगह अस्थिरता, अनिश्चयता को दिखाता रहा और लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद के लिए, संघर्ष करने के लिए विचार देता रहा। हम मानव इसे स्वीकारते रहे। स्वीकार करके जब हम उसको भोग कर गुजरे वह हमारे लिये तृप्ति का आधार नहीं बना। इसका गवाही यही है कि सुविधा-संग्रह का तृप्ति बिन्दु का आधार नहीं हो पाया। इस तरह से हम अंतरविरोधी होकर भी जीते रहे। अभी आपके सम्मुख जो प्रस्ताव प्रस्तुत है इसको समझना ही है। मैं जैसे जाँचता हूं अपने में, वैसे ही आपको भी जाँचना ही है और जाँच कर जब आप जीते हैं तभी तृप्त होते हैं तब दूसरों को समझाने के लिए अपने को अर्पित करना होता ही है। जब हम दूसरों को समझा पाये तब हमारी समझ का प्रमाण मिलता है यह एक कसौटी है समझदार होने का। मुझको जो अनुभव हुआ वह यह है कि समझदारी में हम सहअस्तित्व को देखा है। सहअस्तित्व में मानव अपने परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर समृद्धि का अनुभव कर सकता है। व्यवहार के हर मूल मुद्दे में मानव की समझदारी समाधान के रूप में ही ध्रुवीकृत होती है। इन तीनों बातों को हमने देखा है जिसका अध्ययन कराने के क्रम में, प्रमाणित करने के क्रम में हम दूर-दूर तक फैल जाते हैं जब कि शरीर की लम्बाई-चौड़ाई निश्चित ही रहती है। मानव के लिए जो प्रस्ताव प्रस्तुत कर रहे हैं

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