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ही उत्तर मिलेगा। समाधि मुझको हुआ या नहीं, इसको प्रमाणित करने के लिए हमने संयम किया और उसी के बलबूते ये बातें निकल आई। मानव की समझदारी तरंगवत है। पहले जंगलयुग में, शिलायुग में और धातु युग में जैसा मानव जिया ये सब इतिहास में लिखा हुआ है। जैसे ही राजयुग आया तो काफी लोगों ने राहत पाया। राजा जानमाल की रक्षा करेगा जबकि वो चीज अभी तक हुआ नहीं। जान माल की रक्षा हुई नहीं है अमन चैन तो बहुत दूर है।

हर परिवार, हर समुदाय जान-माल की रक्षा और अमन चैन के लिए चिंतित रहता ही है। इसी तरह आदर्शवादी सीढ़ी लगी है उससे लोगों को जो कुछ भी राहत मिली और कुछ काल के बाद वह भी पर्याप्त नहीं हुआ। पुनः जब अपर्याप्त हुआ तो स्वाभाविक था पुनः विचार किया। विचार के रूप में विज्ञानवाद आया। इसमें तर्कसम्मत रूपी खूबी के कारण लोगों को यह स्वीकृत हुआ। पहले उपदेशवाद में तर्क की कोई गुंजाइश नहीं थी। आदर्शवाद में करो, ना करो वाली बात में न मानने वाले लोगों को पापी करार देते रहे जितना प्रताड़ित करना है वो भी करते रहे। ये सब इतिहास में लिखा है। तर्कसंगत और तर्क के लिए आमंत्रण होने के कारण मानव ने विज्ञानवाद को स्वीकार किया।

दूसरा स्वर्ग की जो कल्पना थी, जिस सुख की कामना थी वो विज्ञान से प्राप्त सुविधाओं में लोगों को मिलने लगा। उसको भी खूब चख लिया आदमी ने। इसमें भी विज्ञान की उपलब्धियाँ मानव के लिए पर्याप्त नहीं हुई। पुनः झंझट में फंसने लगा मानव। इस तरह मानव झूलता ही रहता है भक्ति-विरक्ति और संग्रह सुविधा के बीच। संग्रह-सुविधा से जब आदमी त्रस्त हो जाता है तब भक्ति-विरक्ति की ओर दौड़ता है और जब भक्ति-विरक्ति से पैर ठंडे पड़ जाते हैं तो संग्रह-सुविधा की ओर दौड़ता है। और दोनों सुनने में अच्छा लगता है किन्तु अच्छा लगना और अच्छा होने में कितनी दूरी है।हर व्यक्ति सोच सकता है। अच्छा लगने मात्र से अच्छा होता नहीं है। जैसे ठंडा पानी, पीना अच्छा लगता है परंतु इससे अच्छा ही होता है ऐसा कोई नियम नहीं है। ठंडा पानी पीने से कोई रोगी हो सकता है, किसी को खाँसी हो सकती है। अतः ठंडा पानी अच्छा लगना या ठंडा पानी अच्छा न लगना दोनों सार्वभौम नहीं हो सकते हैं। यह शरीर के लिए अनुकूल-प्रतिकूल पक्ष है।

विज्ञानवाद के कारण हम एक अस्थिरता, अनिश्चियता की ओर चले जा रहे हैं और विज्ञानियों ने मानव को एक यंत्र के रूप में व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। वे अभी तक सफल नहीं हो पाये है, ये सब सुना हुआ है। जो वैज्ञानिक मानव को यंत्र के रूप में व्याख्यायित करता है वह स्वयं इस व्याख्या से असंतुष्ट रहता है। आजकल मानव की यांत्रिक कार्यविधि को समझना एक बड़ा मुद्दा बना है। इसी आधार पर मानव के व्यवहार में गति, कार्य में गति, विचार में गति आ पायेगी ऐसा सोचते हैं। जबकि आदमी इस रूप

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