है, घिरा है, डूबा है। इसे व्यापक कह सकते हैं। एक-एक वस्तु (इकाईयाँ) दो प्रजाति की है - एक जड़, दूसरा चैतन्य। चैतन्य वस्तु का मतलब है - जीव कोटि, मानव कोटि और जड़ वस्तु का मतलब है - पदार्थावस्था, प्राणावस्था। इसमें सभी खनिज, मिट्टी, धातु तथा प्राण कोशाओं से बनने, बिगड़ने वाली वस्तु हैं। ये जितने भी वस्तुएं हैं व्यापक वस्तु में भीगी ही है, घिरी ही है, और डूबी ही है इसको मैंने सटीकता से देखा है। व्यापक वस्तु से एक-एक वस्तु अलग होने का अस्तित्व में कोई प्रावधान नहीं है। अस्तित्व में जिसका प्रावधान नहीं है मानव उसे पैदा नहीं कर सकता।
अस्तित्व में जो भी प्रावधान है उसकी उपयोगिता को छोड़कर दुरूपयोगिता की ओर मानव कुछ भी उपलब्धि करता है तो सिवाए बर्बादी के और कुछ हाथ लगता नहीं है। जैसे- युद्ध के लिए हमने बहुत सारी चीज उपयोग किया इससे धरती और मानव को बरबाद करने के अलावा दूसरा हम कुछ नहीं कर पाए। शायद यह सारे वैज्ञानिकों को धीरे-धीरे समझ में आ रहा है। यदि यह पहले समझ में आ जाता तो मानव समृद्ध व सुखी हो सकते थे। अनेक घाट-घाट के बाद नदी समुद्र में आती है, शायद नियति यही रही हो। पहले रहस्यमयी याने आदर्शवाद के बीच आदमी को आना पड़ा, स्वीकारना पड़ा इससे जो राहत मिला वह मानव को पर्याप्त नहीं हुआ। पुनः भौतिकवाद के शिकंजे में आ गये। इसमें भी जो राहत मिला वह सुख, समृद्धि के अर्थ में पर्याप्त नहीं हुआ। आज जो दर्द है यह उसकी बात है। दोनों जगह से हम पूर्ण राहत नहीं पाये, स्वाभाविक है तीसरी आगे सीढ़ी की जरूरत है।
इस ढंग से जो उत्तर पाए बंधन और मोक्ष उसका उत्तर यह बना - “मानव समझदार होता है तो बंधन से मुक्ति पा जाता है”। अब समझदार हो कैसे? इसके लिए जब देखी हुई बात को मैंने देखा कि मुझमें क्या भ्रम है? ‘मुझमें’ मैं शोध किया, ‘मुझमें’ मैं जाँचा तब पता लगा कि हमारे पास बंधन का कारण कुछ भी नहीं दिखता; तो यही स्थिति क्यों न सबमें पैदा की जाए। सबमें पैदा करने पर कैसा लगेगा? तब जैसा आपको पहले सुनाया था। भूमि स्वर्ग हो जाएगी, मानव देवता हो जाएगा, सभी धर्म सफल हो जाएगा, नित्य शुभ ही शुभ होगा। परंपरा के रूप में नित्य शुभ होगा। इसमें अपने को हम फिर जांचने लगे क्या हम यह सब संप्रेषित कर पायेंगे? क्या इसकी लोगों को जरूरत है या नहीं?
ये सब उसके बाद शुरु हुआ। तो मुख्य मुद्दा जिससे मैं अपने में आश्वस्त हुआ कि संविधान में मानवीय आचरण रूपी मानवीय आचार संहिता को समावेश कर सकते हैं। जिससे मानवीय राष्ट्रीय चरित्र प्रमाणित होगा। इस जगह में हम निश्चित हूँ। मैं स्वयं पारंगत हूँ और प्रमाण भी हूँ। ‘अस्तित्व’ मुझको समझ में आया है आपको समझा देंगे और ‘जीवन’ मुझे समझ में आया है और आपको समझा देंगे। ‘मानवीयता पूर्ण आचरण’ मुझको समझ में आया है आपको समझा देंगे। यदि ये तीनों तथ्य समझ में आता है, माने