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छाती का कितना बड़ा बोझ हल्का हो सकता है। लाभ-हानि के चक्कर में आदमी न तो अपने को बचाता है, पराया तो बचाना ही नहीं। लाभ-हानि के चक्कर में सबका कत्ल, चकनाचूर। इस झंझट से मुक्ति तो इसी विधि से आता है कि मानव मूल्यों को समझने में सहज होता है। उसके पहले ये होने वाला नहीं है। हम बहुत-बहुत सिर कूटे हैं किन्तु कुछ सुधार हुआ नहीं। इसकी गवाही है - साम्यवाद और पूंजीवाद। साम्यवाद भी अंततोगत्वा राष्ट्रीय लाभ के लिए जूझा, लाभ से मुक्त नहीं हुआ और पूंजीवाद सदा-सदा घोषित लाभवादी है। इसलिए तो लाभ-हानि से मुक्त होने के लिए मानव को अपने मूल्यों को समझने की आवश्यकता है। मानव मूल्यों को निर्वाह करने की आवश्यकता है। ये कैसे आयेगी जीवन विद्या समझ में आने से अस्तित्व सहअस्तित्व के रूप में समझ में आने से और मानवीयतापूर्ण आचरण में विश्वास होने से, मानव मूल्य चरितार्थ होता है। इसी का नाम है समझदारी।

मानव मूल्य जब हम चरितार्थ करना शुरू करते हैं तभी हम सही करने में (समर्थ) निष्णात होते हैं, पारंगत होते हैं। जब तक किसी न किसी उन्माद से जकड़े रहते हैं और हमको सही करने का कोई रास्ता मिलता नहीं। समझदार होने के लिए जीवन को समझना तथा सहअस्तित्व में मानव अपने आचरण को समझना है। यही जीवन विद्या है। विद्या का दो भाग है - जीवन ज्ञान और सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान। इन दोनों का धारक वाहक जीवन ही है। जीवन ज्ञान का मतलब जीवन की जीवन को समझने की प्रक्रिया है। जीवन ही जब अस्तित्व को समझता है इस प्रक्रिया को अस्तित्व दर्शन कहा। सभी जीवन समान है सारे मानवों में जीवन एक समान है। समानता की बात कैसे आ गई। जीवन, जीवन को समझने की विधि में, प्रमाणित करने की विधि में, अस्तित्व को समझने की विधि में सहअस्तित्व को प्रमाणित करने की विधि में यह आया कि सभी जीवन समान है।

समझने की व्यवस्था शरीर में कहीं भी हाथ-पैर, कान-नाक, चक्षु, मेधस, हृदय कहीं भी नहीं है। यह व्यवस्था जीवन में ही है। जीवन ही जीवन को और सहअस्तित्व को समझने वाली वस्तु है और दूसरा कोई समझेगा नहीं। इस ढंग से हम इस निष्कर्ष पर आते हैं मानव समझदारी व्यक्त करने के लिए (प्रमाणित करने के लिए) शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में होना जरूरी है। यह केवल शरीर या केवल जीवन रहने पर नहीं होगा। प्रमाणित करने का केन्द्र बिन्दु हुआ व्यवस्था में जीना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना। यही समझदारी की सार्थकता है। हम सब व्यवस्था में जीना ही चाहते हैं ये प्रक्रिया जीवन सहज ही है। ये कोई लादने वाली चीज नहीं है।

सहअस्तित्व को समझने के क्रम में अस्तित्व स्वंय सहअस्तित्व है क्योंकि सत्ता (व्यापक) में सम्पृक्त (डूबी, भीगी, घिरी) प्रकृति ही संपूर्ण अस्तित्व है। प्रकृति अपने में एक-एक गिनने योग्य वस्तु है। गिनने वाला

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