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बचपन से मैनें अध्ययन किया है कि हर मानव संतान सही करने का इच्छुक रहता है। न्याय पाने की आवश्यकता उनमें रहती है। सत्य वक्ता होता है। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं वैसे-वैसे झूठ बोलना आ जाता है क्योंकि हम वातावरण ऐसा बनाएं हैं, झूठ बोले बिना रहा नहीं जाता। व्यापार में झूठ समाया ही हुआ है। राज्य शासन में झूठ है, शिक्षण में सच्चाई उभरती नहीं है। तो इस ढंग से आदमी कहाँ जायेगा। इस तरह से मानव परिस्थितियों से बाध्य होकर, तदनुसार व्यवहार व दिनचर्या को बनाता है। इस तरह मानव किसी लक्ष्य तक पहुँचा नहीं और न पहुँच सकेगा सभी बड़ी-बड़ी संस्थाएं, राज्य संस्थान सभी में बड़े-बड़े प्रोजेक्ट पड़े हैं पर हम संकट से छूट नहीं पाये।

इस संकट से छूटने की आवश्यकता तो है किन्तु वह केवल तभी होगा जब आदमी समझदार होगा और यह जब भी होगा इस एक ही विधि से जीना होगा वह है मानवीयता पूर्ण आचरण। मूल्य, मूल्यांकन इसका संबंध सहअस्तित्व सहज विधि से है। इसके लिए हम आपको कोई प्रयोगशाला नहीं बनाना है। ना कोई युद्ध करना है। संबंध के लिए प्रयोजन को अखण्ड समाज व्यवस्था के अर्थ में जानना-मानना जरूरी है उससे पहचानना-निर्वाह करना बन जाता है। जानना-मानना प्रयोजन का ही होता है। बिना प्रयोजन के जाने-माने, पहचानने-निर्वाह करने में भटकाव होता ही है। जैसे-धरती के संबंध में प्रयोजन को जानने में चूक गये। पर्यावरण के प्रयोजन को जानने में चूक गये, जिसके कारण धरती और पर्यावरण की समग्रता को समझ नहीं पाये और मानव जाति ने धरती का भट्ठा बैठा दिया। इसको भली प्रकार से समझने की आवश्यकता है कि इस धरती पर मानव परंपरा रहना है उसके लिये कैसे करवट लिया जाये, उसके लिए ही यह प्रस्ताव है।

भ्रमित होने के कारण इंद्रिय संवेदनाओं के लिए मानव का जीना हुआ न कि संज्ञानीयता पूर्वक जीता हुआ। जिससे मानव को तृप्ति नहीं मिली। अतृप्त आदमी जो-जो करना है वह कर ही देता है। अतृप्ति को तृप्ति में लाने का कुल काम है इसको हम दूसरी भाषा में कहते हैं ‘जागृति’। तृप्ति आयेगी समझदारी से। यही तृप्ति का नित्य स्रोत है। जीवन कभी मरता नहीं। जीवन में समझदारी आती है, तृप्ति आती है तो वह निरंतर ही रहेगी। ये सभी बातें हम देख चुके हैं। इस आधार पर यह प्रस्ताव है समझदारी सर्वमानव का अधिकार है। हर व्यक्ति इसका शोध कर सकता है। ऐसा मेरा सोचना है। मानव जाति अपने भावी क्षणों का निर्माता समाधान पूर्ण विधि से वैभवित हो सकता है।

प्राणकोशाएं जब मिट्टी में मिल जाती हैं तो उर्वरक बन जाती है। आहार को आहार के लिए ये व्यवस्था प्रकृति सहज है। प्राकृतिक रूप में उर्वरक यही वस्तु है। प्राणकोशाएं बनती हैं और प्राणकोशाएं से रचित रचनाएँ पुनः विरचित होकर मिट्टी में मिल जाती हैं इन्हें उर्वरक कहते हैं। धरती में जितनी भी उर्वरकता

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