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गोल एक दूसरे को पहचानते हैं और निर्वाह करते हैं। इस ढंग से सभी पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था भी एक दूसरे को पहचानते हैं और निर्वाह करते हैं इसका प्रमाण भी प्रकृति में पूरकता विधि से स्पष्ट होता है। मानव केवल पहचानने और निर्वाह करने में तृप्त नहीं हुआ और इसमें शंकाएं पैदा हुई। मानव के साथ दो क्रियाएं और जुड़ गयी जानना, मानना। मानव जानने, मानने की क्रिया के आधार पर ही पहचानने, निर्वाह करने से आश्वस्त होता है। प्रयोजनों का सार्थकता का ही जानना, मानना होता है। प्रयोजनों को जानने मानने के क्रम में ही मानव सामाजिक हो पाता है। बिना जाने माने सामाजिक हो नहीं पाता है सहअस्तित्व प्रमाणित होता नहीं है। मानव की बहुत बड़ी दरिद्रता का कारण यह भी है कि जानने मानने का अवसर रहते हुए भी जानना, मानना नहीं हुआ। मानव इस स्थिति में स्वयं दरिद्र रहता है औरों को भी दरिद्र बनाता है। मानव स्वयं अपनी दरिद्रतावश ही धरती को दरिद्र बनाया है। मैं समझता हूँ जो जानने मानने वाला भाग है उसको प्रखर बनाया जाना चाहिए। हर व्यक्ति में इस प्रखरता की संभावना है। हर व्यक्ति में इस प्रखरता की आवश्यकता है यह समीचीन है। समझदारी को प्रमाणित करना और परंपरा के रूप में प्रवाहित करना ही विद्या का मतलब है।

जीवन की क्रियाओं को मूलतः पाँच भागों में देख पाते हैं। हर भाग में दो-दो क्रियायें होती है स्थिति और गति के रूप में। जैसे हर जीवन में ‘आशा’ नाम की क्रिया होती है जिसमें दो क्रियायें होती है चयन और आस्वादन। आस्वादन के लिये क्या चुनते हैं यह एक चयन क्रिया है। आस्वादन करते हैं यह भी एक क्रिया है ये दोनों जहाँ होती है उस भाग का मन नाम हैं। चयन क्रिया में हमारे आस्वादन के लिये क्या क्या चीज चाहिये मानव तमाम प्रकार की परिकल्पना किया है और तमाम प्रकार की चीजें इकट्ठा किया है और इकट्ठा करने में संलग्न है। हमने अभी तक सुविधा संग्रह के लिये इकट्ठा किया है। उसका कारण है कि सुविधा संग्रह के प्रयोजन को जानने-मानने के लिए ये हम जितना पीछे रहे हैं सुविधा संग्रह के लिये उतना ही विवश होते गये हैं। सुविधा संग्रह में कहीं तृप्ति बिन्दु नहीं मिला। जबकि इसके व्यवहारिक प्रयोजन को समझने पर समझ आता है कि यह शरीर के पोषण-संरक्षण के लिये आवास, आहार, अलंकार (साधन) की जरूरत के रूप में है। समाज गति के लिये दूरगमन, दूरश्रवण, दूरदर्शन की आवश्यकता स्पष्ट होती है। ये सभी चीजें उपलब्ध हो गई हैं और सुविधा-संग्रह के आधार पर मानव तृप्त नहीं हुआ। यह एक भारी विडंबना की बात है।

जीवन की और दो क्रियाओं ‘विश्लेषण’ और ‘तुलन’ हैं। विश्लेषण क्रिया को जीवन अपने बलबूते पर जो कुछ भी हो सकता है करता ही है। तमाम विश्लेषणों में प्रयोजनों को ही पहचानने की बात आती है।

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