प्रमाणित हो पाता है। इन दस क्रियाओं में मुख्य मुद्दा है अनुभव होना और अनुभवमूलक विधि से जी पाना। अनुभव मूलक पद्धति से जीने के लिये स्वाभाविक रूप से स्रोत बना हुआ है। जीवन अनुभव करना चाहता ही है। समझदार होना ही चाहता है अपने आप को समझदार, अनुभवशील, न्यायाविद्, चिंतनशील मानता ही है। अस्तित्व में संबंध चारों तरफ फैला रहता है उसको जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना फलस्वरूप उभयतृप्त होना ही न्यायविद् का प्रमाण है।
मानव अपने में स्वतंत्र है समझदार बनना है या नहीं बनना है। यदि समझदार बनना है तो सहअस्तित्व में समझदार बनने की परिस्थितियाँ समीचीन है। समझदार बनने की पूरी सामग्री है और समझदार नहीं बनना चाहता है उसके लिए भी सामग्री है किन्तु परिणाम दोनों का भिन्न है। नासमझी में शुभ, सुख घटित होने वाला नहीं। मेरे अनुभव अनुसार हम किसी से बंधकर, लदकर और लड़कर जीना नहीं चाहा वैसे ही आप भी किसी वस्तु से बंधकर, लदकर और लड़कर जीना नहीं चाहेंगे और कोई भी फंस कर जीना नहीं चाहता। इस तरह हर व्यक्ति कहीं ना कहीं समझदार होना ही चाहता है। न्याय समाधान में एकसूत्रता पूर्वक जीना चाहता है।
संबंध जो है सभी ओर जुड़ा ही है इसे हम भ्रमवश पहचानते नहीं है यही परेशानी का घर है। जिस क्षण से हम संबंधों को जानना-पहचानना शुरू किया उसी मुहूर्त से हममें अपने आप से जीवन सहज मूल्यों का निष्पत्ति होती है। जैसे ही हमसे संबंधों को पहचानना होता है मूल्य अपने आप से बहने लगते हैं फलस्वरूप निर्वाह होता है उसका मूल्यांकन होने पर उभयतृप्ति होता है, इस तरह न्याय प्रमाणित होता है। संबंध को पहचानने कि स्थिति, पहचानने की विधि बनती है प्रयोजन के आधार पर। संतान ‘मां’ को पहचानते हैं पोषण के अर्थ में। संरक्षण स्रोत को ‘पिता’ कहते हैं। प्रमाण स्रोत को ‘गुरू’, जिज्ञासा स्रोत को ‘शिष्य’ कहते हैं। प्रचलित रूप में कहा जा रहा है कि हमें यंत्रवत् रहना है, यांत्रिकता में प्रवीण रहना है। क्या मानव एक यंत्र है? इसका उत्तर देने वाला कोई माँई-बाप है? मैं कहता हूँ मानव यंत्र नहीं है। सारे के सारे यंत्रों का रचयिता मानव है। जितने भी अभी तक यंत्र रचे गये हैं सभी यंत्रों का जनक मानव है। इसलिये यंत्र मानव को पा नहीं सकते। मानव से कम ही यंत्र बनता है इसलिये मानव का अध्ययन यंत्र कर नहीं सकता। दूसरा सभी यंत्र जड़ प्रकृति से बनता है। अभी तक जितने भी यंत्र बनाये हैं पदार्थावस्था की वस्तु से ही बना है। प्राणावस्था की वस्तु से एक भी यंत्र नहीं बना पाये हैं। ये याद रखने की बात है। मानव तो बहुत दूर की बात है। अभी एक भी यंत्र प्राणकोशाओं से नहीं बना पाये हैं और डींग हांकते हैं कि मानव एक यंत्र है। मानव परंपरा के लिये कहाँ तक उचित होगा। अभ्युदय के अर्थ को कैसा पूरा करेगा। अभी तक कितने गहरे यह बात बैठी है कि मानव एक यंत्र है, भोग के लिये वस्तु है। अब तक