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के साथ रही ना परंपरागत आदर्शवादी संस्कार के साथ रही। हमारी आस्था इसमें स्थिर नहीं हो पायी। यह हमारा सम्पूर्ण उद्देश्यों की ओर दौड़ने का आधार और कारण बना। हमारी आस्था ना शिक्षा परंपरा में, ना संस्कार परंपरा में बनी इसलिए हम शायद रिक्त हो गये और यही हमारा अपने ढंग से दौड़ने का आधार बना। दो घटनाएं तो घट चुकी। इसमें एक घटना जीवन को समझना महत्वपूर्ण रही। जीवन में ही समझदारी समायी है एवं समझदारी पूर्ण विधि हमारे हाथ लगी। मान्यताओं, आस्थाओं के आधार पर हम साढ़े चार क्रियाओं में जीते हैं। आस्था मतलब बिना जाने, मान लेना। जिसको जानने के बाद मानते हैं उसका नाम होता है विश्वास। विश्वास के साथ जीने में दस क्रियाएं प्रमाणित होती है। मैं दसों क्रियाओं को प्रमाणित करता ही हूँ आप भी कर सकते हैं। सहअस्तित्व को प्रमाणित करना ही है। इसी क्रम में ये अणु, परमाणु एक दूसरे को पहचानते हुए व्यवस्था के रूप में होते हैं। ग्रह, गोल, वनस्पति, पदार्थ ये सभी सहअस्तित्व को प्रमाणित करते हुए व्यवस्था में हैं। सहअस्तित्व प्रमाणित करने के क्रम में ही और शुद्ध रूप यही है कि सभी इकाईयाँ अपने में ऊर्जा सम्पन्न हैं । ऊर्जा सम्पन्न रहने की ही यह अस्तित्व अनुपम अभिव्यक्ति है। सभी परमाणु अंश, सभी परमाणु, सभी अणु अपने में व्यवस्था की ओर उन्मुख है। यही बात है जो मानव को प्रेरित करने के लिए मुख्य मुद्दा है। इस मुद्दे पर मेरा अनुमान ऐसा है कि हर ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी को सहअस्तित्ववादी मानसिकता की आवश्यकता है। इसी मानसिकता के साथ हम मानव बन सकते हैं। मानव से कम में हमारा कोई ऐश्वर्य उदय होने वाला नहीं है।

हमारे सम्मुख स्थित जंगल, पहाड़, खनिज जीव सहअस्तित्व के आधार पर ही अपने वैभवों को प्रकाशित कर दिये हैं। सहअस्तित्व विधि से ये समृद्ध है। सहअस्तित्व नहीं होता तो किसी को संरक्षण मिलना ही नहीं था। इसका मूल तत्व यही है सत्ता में एक-एक वस्तु (इकाईयाँ) संरक्षित नियंत्रित और ऊर्जा संपन्न है। जो अणु व प्राणकोशाओं के रूप में कार्यरत है उनकी सीमा उतनी ही है। इसमें भी सहअस्तित्व वैभवित है। एक कोशा के साथ दूसरे कोशा का सहअस्तित्व होने के कारण बहुकोशा विधि से निश्चित रचना रचित कर पाये हैं। ये रचना करने की विधि कोशा में स्थित प्राण सूत्र में निहित रहता है। इसका नाम है रचना विधि। इसमें निरंतर शोध होता रहता है। इसी गवाही के स्वरूप अनेक प्रकार की रचनायें हमारे सम्मुख है। इस गवाही के साथ हम आश्वस्त हो पाते हैं प्राणसूत्र में भी और परमाणु अंशों में भी शोध कार्यक्रम है।

मानव के शोध कार्य का जो स्रोत है कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता। उसके बाद विचार शक्ति, इच्छा शक्ति, संकल्प अनुभव प्रमाण शक्ति ये सब शक्तियाँ अपने आप में अनुसंधान करने के लिये, शोध करने के लिये तत्पर रहते हैं। इन तत्परता के साथ ही इन दस क्रियाओं के साथ जीने वाली क्रिया, जीने वाला वैभव

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