इस विधि से हम परिवार में, व्यवस्था में जीने से पाँचों आयामों में भागीदारी करने से समग्र व्यवस्था में भागीदार होते हैं। इस तरह से मानव के लिये निरंतर उमंग, खुशहाली, अटूट साहस बन जाता है। न्याय के बाद आता है, धर्म। धर्म का मतलब अनुभव प्रमाण बोध जो बुद्धि में होता है अर्थात् समाधान। समाधान का मतलब ही मानव धर्म है, व्यवस्था में जीना ही मानव धर्म है, यही अभ्युदय है। अव्यवस्था में मानव जीता है तो समस्या से ग्रसित हो जाता है व्यवस्था में जब जीता है समाधानित रहता है। आदमी समस्याग्रस्त रहना चाहता नहीं है। अतः आदमी समाधानित रहना चाहता है। समाधान = सुख, मानव सुख धर्मी है। समस्या = दुख, समस्या को आदमी चाहता नहीं। भय और प्रलोभन के आधार पर समाधान होता नहीं और सारा संसार तुला हुआ है कि भय और प्रलोभन के आधार पर समाधान हो जाए। भय और प्रलोभन के आधार पर व्यवस्था को समीकरण करने के लिए हम आज भी शिक्षण प्रशिक्षण करते हैं जबकि इससे व्यवस्था हो नहीं सकती। कहीं एक जगह पर भय और प्रलोभन के आधार पर कुछ बनता है तो उसी क्षण से उसके टूटने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। अतः मूल्य और मूल्यांकन के आधार पर ही व्यवस्था होगी। परिवार व्यवस्था, प्रौद्योगिकी, प्रशासन, राज्य, व्यवस्था सभी स्तर पर व्यवस्था इसी विधि से होगी। व्यवस्था का मतलब यही है मानव अपनी प्रमाणिकता को प्रस्तुत कर सके, न्याय का निर्वाह कर सके और व्यवस्था में भागीदारी कर सके।
परिवार में, हर आदमी में, हर बच्चे में समझदारी का सूत्र देना ही शिक्षा संस्कार व्यवस्था है। इसे समझदारी का लोकव्यापीकरण करना भी कह सकते हैं। पहले आपको बताया दर्शन; दर्शन के बाद विचार; विचार के बाद शास्त्र; शास्त्र के बाद योजना। योजना में एक है जीवन विद्या योजना जिसमें मानव परिवार मानव चेतना सम्पन्न होने के लिए पूरी गुंजाईश है। इस समझ से आदमी परिवार में व्यवस्था के रूप में जी सकता है।
दूसरी योजना है मानवीय शिक्षा-संस्कार का मानवीकरण। इसमें बच्चों के लिए शिक्षा व्यवस्था है। ऐसी शिक्षा को हम एक स्कूल में (बिजनौर, उ.प्र.) प्रयोग किये। यह पाँच वर्ष का अनुभव है। जीवन विद्या के आधार पर शिक्षा का मानवीकरण करने गये उसका क्या प्रभाव पड़ा वहाँ देखा गया। लोग कहते रहे हैं कि विद्यार्थियों के ऊपर वातावरण का प्रभाव पड़ता है जिसे हम नकारते रहे। यदि वातावरण का प्रभाव पड़ता तो हम अनुसंधान कैसे कर पाते? इस स्कूल से यह प्रमाण मिलने लगा है कि बच्चों का प्रभाव परिवार पर एवं उनके परिवार वालों का प्रभाव वातावरण पर पड़ने लगा है। बच्चे जीवन के रूप में अपने को पहचानने लगे और व्यवस्था में जीना अति आवश्यक है इसे स्वीकारने लगे। इसके फलस्वरूप बहुत से बच्चे टी.वी., व्यर्थ वार्तालाप आदि में अरूचि दिखाये जाने वाले चीजों का मूल्यांकन करने लगे और यह