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इससे बड़ा लाभ हुआ कि अहंता मुझे नहीं हुआ। मेरे पास अहंता के साथ प्रस्तुत होने वाले लोग भी बहुत कम आये हैं। कितनी भी अहंता को लेकर आने वाले लोगों को दो-तीन सीढ़ी के बाद अहंता का शमन होता हुआ देखा गया। मेरे साथ तो सारे मिलन सज्जनता के साथ सादगी के साथ स्वाभाविक रूप से हुआ। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि मेरे से मिलने वाले हर सज्जन ने हमारी बात को स्वीकार कर लिया। बहुत से लोग नहीं स्वीकारते हैं इनका भी हम सम्मान करते हैं। इनकी गलती नहीं है उनके ऊपर परंपरा को लाद दिया गया है। इसलिए कोई स्वीकारे या नहीं मैं खुशी में रहता हूँ। कालक्रम संयोग हरेक के लिए सद्बुद्धि का अंकुर रखा ही है। वह कब पल्लवित होगा, पुष्पित होगा ये हम नहीं कह सकते। हर आदमी शुभ चाहता ही है। शुभ चाहने के मूल में संभावनाओं को और समीचीन किया जाए यह मैं चाहता हूँ। संयोग जब होते हैं आदमी समाधान के अर्थ में, व्यवस्था के अर्थ में, अखण्ड समाज के अर्थ में मिलते हैं। एक ही विचार एक ही अपेक्षा के लोगों के मिलने से संयोग नहीं बनता। जैसे दो चोर, दो डाकू, दो अपराधी मिलना समाधान, व्यवस्था के अर्थ में नहीं है इसलिए यह संयोग नहीं है।

न्यायपूर्वक हमसे जीना बना तो हमारी प्रमाणिकता की स्थली बनी, हमारा परिवार। परिवार जनों की आँखों में हम ठीक चल रहे हैं यह आ जाता है। परिवार में न्यायपूर्वक चलने के बाद जितने हमारे मित्र परिवार है उनके बीच सटीकता से हमारी पहचान देख पाता हूँ। उसके बाद न्यायपूर्वक जीना हमारे अधिकार में हो गया जो आगंतुक आते हैं, उन पर भी हमारी पहचान स्पष्ट करने में समर्थ हो पाता हूँ।

हर मानव अपनी सार्थकता और सफलता को अपनी चाहत में बनाये ही रखता है। हमारी समझदारी है, हमारी नेक चाहत का स्रोत। इस स्रोत को हम कभी भी भुलावा नहीं दे सकते। शुभ हर व्यक्ति को स्वीकार है हर व्यक्ति की चाहत है और शुभ घटित होने के लिए इंतजार हम सब कर ही रहे हैं। इंतजार करते समय संबंध का मुद्दा आता है। संबंधों की पहचान उसमें निहित प्रयोजन (मूल्य) की पहचान ही है। यही अध्ययन है। प्रयोजन पहचानने के बाद मानव स्वाभाविक रूप में निष्ठान्वित होता है और फिर पारंगत होता है। पारंगत होने के बाद फलित होता ही है। यही विधि है सफलता की जो काफी सरल है। अभ्युदय सभी संबंधों के साथ जुड़ा ही रहता है। संबंधों का प्रयोजन अभ्युदय है अर्थात् सर्वतोमुखी समाधान और सुख के अर्थ में है। समाधान के अर्थ में ही हम प्रेम करते हैं, समाधान के अर्थ में ही हम कृतज्ञ होते हैं, मैत्री करते हैं, विश्वास करते हैं, मानव व्यवहार में प्रशस्त रहते हैं और सुख का अनुभव करते हैं। मूल्यों का स्वरूप बनता है ममता, वात्सल्य, विश्वास, स्नेह, कृतज्ञता, गौरवता, प्रेम, श्रद्धा, सम्मान। हमारे अभ्युदय के लिये जहाँ से भी सहायता मिली हो, जिससे भी मिली हो, इसकी स्वीकृति का नाम है “कृतज्ञता”। कृतज्ञता के साथ अन्य मूल्य अपने आप सार्थक होने लगता है। कृतज्ञता के पश्चात स्नेह, प्रेम, विश्वास सार्थक होता है।

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