संसार में परिवर्तन चाह रहे हैं ऐसा तो गवाही हो चुकी है। क्या परिवर्तन चाहिए यह पकड़ में नहीं आता रहा, उसके लिए यह प्रस्ताव है। शिक्षा संस्कार से ही लोक व्यापीकरण होगा। शिक्षा में भी मानवीय शिक्षा को प्रावधानित किया जाना चाहिए। हर व्यक्ति को न्यायपूर्वक जीकर प्रमाणित होने के लिए हमको समझदारी को देना ही पड़ेगा। इसके लिए शिक्षा में विज्ञान के साथ चैतन्य का भी अध्ययन कराना होगा। चैतन्य को हम समझेंगे नहीं, तो अस्तित्व हमको समझ में आ नहीं सकता और अस्तित्व नहीं समझेंगे तो व्यवस्था कैसे समझ में आयेगी? अस्तित्व को समझने वाला जीवन (चैतन्य) ही है। इसलिए चैतन्य वस्तु का भी अध्ययन शिक्षा में समावेश होना जरूरी है।
मनोविज्ञान में संस्कार पक्ष (समझदारी) का समावेश होना चाहिए, मानव संचेतना का समावेश, पहचान होना चाहिए। मानव संचेतना में संवेदनशीलता, संज्ञानशीलता दोनों वैभवित हैं। दर्शनशास्त्र को प्रमाणिकता के साथ पढ़ाना चाहिए। जब प्रमाणिकता के साथ पढ़ायेंगे तो मानवता विधि ही आयेगी, भौतिक और आध्यात्मिक विधि नहीं। अतः मानव समझदार हो सकता है, समझदारी के लिये अस्तित्व सहज समीचीन है। प्रमाणों के बारे में जो अनुभव किया है वह यह है कि मैं जो समझा हूँ, सीखा हूँ, किया हूँ, जीता हूँ उसको समझाने, सिखाने और कराने में प्रमाणित होता हूँ। इन तीनों विधा में हमें प्रमाणित होना जरूरी रहा है। चौथा और कोई प्रकार नहीं है। समझने में परिपूर्ण होना जरूरी है। सीखने, करने में थोड़ा कमी चल सकती है। अभी तक हम सीखने, करने-कराने का काम बहुत अच्छे से कर लिये हैं किन्तु समझने के क्रम में शून्य हैं। सीखने-सिखाने, करने-कराने को ही हम सर्वोपरि मूल्य बताते हैं। इससे न कोई समाधान मिला न मानव को कोई राहत ही मिला, कहीं न कहीं हम फंसते ही रहे। अतः अब मानव को अपने में विश्वास और सम्पूर्ण अस्तित्व सहज अध्ययन करने की आवश्यकता आ गयी। मानव अपने अध्ययन, अभ्यास के बाद ही समझदारी में प्रमाणित होना बनता ही है।
आदर्शवादी विधि और भौतिकवादी विधि में मानव का अध्ययन कहीं न कहीं पीछे छूट गया। आदर्शवादी विधि में देवी-देवता, ईश्वर को सर्वोपरि माना और मानव पीछे रह गया। देवी-देवता, ईश्वर को समझने के चक्कर में मानव के अध्ययन को तिलांजली दे दिया। भौतिकवादी विधि में भी मानव को छोड़ दिया, प्रयोग विधि से यंत्र को पकड़ लिया अर्थात् यंत्र प्रमाण हो गया। आदर्शवाद में ग्रंथ, किताब, वांङ्गमय प्रमाण हो गया और भौतिकवाद में यंत्र प्रमाण हो गया। इस तरह से आदमी का अवमूल्यन हो गया और भ्रम के चपेट में फंसकर भ्रम का ही पूरक हो गया। इस तरह मानव भ्रम में फंसकर कुंठित हुआ, पीड़ित हुआ, प्रताड़ित हुआ। अब मानव का उद्धार कैसे हो? उद्धार का आश्वासन पहले भी सभी गद्दी देते रहे हैं किन्तु उद्धार का प्रमाण न हो पाया ऐसा कितने दिन चलेगा।