के मुद्दे में मानव का ध्यान मात्रा और गुणों के ओर दौड़ना स्वाभाविक है। यह जीवन का ही एक अपेक्षा है साथ ही कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता जीवन सहज गति स्वरूप होना पाया जाता है। तथापि जीवन अपने मात्रा सहित ही वैभवित है। ऐसी मात्रा को एक गठनपूर्ण परमाणु के रूप में जाना गया है और माना गया है। फलस्वरूप जीवन के क्रियाकलापों को पहचानना संभव हो गया है। इसके प्रमाण में निर्वाह करना स्वाभाविक घटना है अथवा स्वाभाविक स्थिति है। (गठनपूर्ण परमाणु का तात्पर्य यह है कि उसमें कोई अंश, किसी भी परिवेश से अथवा मध्य से विस्थापित न होता हो और न ही उसमें प्रस्थापित होता हो। यही भार बंधन और अणु बंधन से मुक्त और क्रम से आशा, विचार, इच्छा बन्धनों से कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। इसे प्रकारान्तर से जीव संसार में भी आशा बंधन को वंशानुषंगीय विधि से कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। प्रत्येक मानव में ये तीनों प्रकार के बंधन सहित कार्य करता हुआ कल्पनाशीलताओं, उसके क्रियान्वयन क्रम में कर्म स्वतंत्रता का नियोजन दृष्टव्य है। यह भय और प्रलोभन, संग्रह और द्वेष से ग्रसित होना सुदूर विगत से इस वर्तमान बीसवीं शताब्दी की दसवें दशक तक स्पष्ट हो चुकी है। ऐसे बंधनवश ही व्यक्तिवादी अहमताओं और अहमताओं से अहमताओं का टकाराव विविध प्रकार से होते ही आई। यही मानव परंपरा में संघर्ष का स्रोत रहा है। इसका वर्तमान में साक्ष्य यही है शिक्षा जैसी परंपरा में लाभोन्मादी अर्थशास्त्र, भोगोन्मादी समाजशास्त्र, कामोन्मादी मनोविज्ञान शास्त्र, पठन-पाठन, साहित्य कलाओं में रुचि और विवशताएं है।) अब बंधन से मुक्ति क्रम में समझदारी व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी होना सहज समीचीन है इसलिए आवर्तनशील विधि को जागृतपूर्वक पहचानना संभव हुआ।
जागृति जीवन में ही घटित होना पाया जाता है और प्रमाण-प्रयोजन मानव परंपरा में होना पाया जाता है। जागृति का संपूर्ण स्वरूप जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करना, दूसरे प्रणाली से अनुभवमूलक विधि से अभिव्यक्ति, संप्रेषणा एवं प्रकाशन करना ही है। जानने-मानने की संपूर्ण वस्तु अस्तित्व, अस्तित्व ही सहअस्तित्व, सहअस्तित्व में परमाणु विकास, परमाणु विकास क्रम में गठनपूर्णता (चैतन्य पद) में संक्रमित होना और जीवनी क्रम, जीवन जागृति क्रम, जीवन जागृति (क्रियापूर्णता), जीवन जागृतिपूर्णता (आचरणपूर्णता) और उसकी निरंतरता, रासायनिक-भौतिक रचना विरचना आवर्तनशील और पूरक विधि से अध्ययन करना सहज है।
जीवन ही दृष्टा, कर्ता, भोक्ता पद में होने के कारण अध्ययन करने में समर्थ है। मानव शरीर भी एक रासायनिक, भौतिक रचना है। अस्तित्व ही सहअस्तित्व के रूप में नित्य प्रभावी होने के कारण जीवन और शरीर का संबंध और सहअस्तित्व सहज रूप में देखने को मिलती है। इसी कारणवश शरीर को जीवन्त बनाए रखते हुए जीवन अपने निज ऐश्वर्य को, अर्थात् जागृतिपूर्ण ऐश्वर्य को मानव परंपरा में प्रमाणित करने