के क्रम में जीवन क्रियाकलाप प्रमाणित होता है। अस्तु आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा, और अनुभव प्रमाण, जीवन के वैभव है ही, इनमें से आशा, विचार, इच्छाएं, अनुभवपूत होने पर्यन्त भ्रमित रहना देखा गया है। अनुभवपूत होने का तात्पर्य अनुभवमूलक विधि से आशा, विचार, इच्छाओं को शरीर के द्वारा मानव परंपरा में और नैसर्गिक परिवेश में व्यक्त और प्रयोग करने से है। भ्रम का तात्पर्य जो जैसा है उससे अधिक, कम या उस वस्तु से भिन्न वस्तु मान लेने से है। निर्भ्रमता का तात्पर्य भी सुस्पष्ट है कि जो जैसा है उसे वैसा ही जान लें, मान लें, पहचान लें और निर्वाह कर लें। जो जैसा है का तात्पर्य सहअस्तित्व में चार अवस्था व चार पदों का होना इंगित करा चुके हैं। इस प्रकार जीवन ही दृष्टा पद में होना, जीवन और शरीर का संयुक्त रूप में मानव परंपरा का होना जिसका प्रयोजन सर्वशुभ होना, सर्वशुभ घटित होने के लिए मानव परंपरा ही जागृत होना एक अनिवार्य स्थिति है।
जागृत मानव परंपरा में अनुभव का स्वरूप क्रिया उसका प्रमाण जीवन सहज वैभव के रूप में जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करने के क्रम में समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व रूपी सौभाग्य सम्पन्न होना पाया जाता है। अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का नित्य प्रसवन, वैभव, नित्य उत्सव के रूप में मानव परंपरा में, से, के लिए नित्य समीचीन है। इस प्रकार जीवन ही दृष्टापद प्रतिष्ठावश सहअस्तित्व दर्शन क्रिया में सफल होता है। तभी जीवन ही जीवन को जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने में समर्थ होता है और निष्णात हो जाता है। समर्थ का तात्पर्य अनुभवमूलक विधि से अभिव्यक्त, संप्रेषित होने में निरंतरता को बनाए रखने से है। निष्णातता का तात्पर्य अनुभवगामी विधि से अध्ययन कराने से है। व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह कराने से है। पारंगत होना निष्णातता में गण्य होता है। ये सभी परिभाषा, ध्वनि जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान सहज बिन्दुओं को स्पष्ट रुप में प्रमाणित करने-कराने के अर्थ में प्रस्तुत किया गया है।
अब जीवन स्वयं में गठनपूर्ण परमाणु चैतन्य इकाई के रूप में नित्य विद्यमान रहना स्पष्ट किया गया है। यह भी स्पष्ट हो चुका है अस्तित्व में घटने-बढ़ने का कोई लक्षण ही नहीं है। अस्तित्व ही सम्पूर्ण पदों में वैभवित है इसी आधार पर जीवन दृष्टा पद में होना ही अध्ययन का आधार है। जीवन का अध्ययन संपन्न करने क्रम में कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता प्रत्येक मानव में पहचाना और पहचान कराने की विधाओं में स्पष्ट किया जा चुका है। मानव कितनी भी कल्पना करें उनमें कल्पना धारायें निर्गमित होती ही है। इससे यह पता लगता है कि कल्पनाशीलता हर व्यक्ति में अक्षय रूप में है।
कल्पनाशीलता के अनन्तर प्रत्येक भ्रमित मानव चयन, आस्वादन करता हुआ देखने को मिलता है। चयन पहचान पूर्वक ग्रहण करने और उसका आस्वादन अपने ही इच्छापूर्ति के लिए सम्पन्न करता हुआ देखने