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का मूल्यांकन होना पाया जाता है। यह प्रत्येक परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक प्रमाणित होता है। ये क्रियाकलाप भी अक्षुण्ण और अक्षय समझ में आता है क्योंकि कितना भी मूल्यांकन करें, कितना भी मूल्यों को संप्रेषित करें और मूल्यांकित संप्रेषित करने की जीवन सहज शक्तियाँ उद्गमित रहती ही है। इसलिए इनको अक्षय और अक्षुण्ण रूप में पहचानना मानव सहज है।

जीवन में बोध और ऋतंभरा क्रियाएं हर जागृत मानव में होना पाया जाता है। ये क्रियाएं जागृति की दूसरी सीढ़ी है। जागृति का पहला सीढ़ी चिंतन ही है, जिससे मूल्यों का पहचान हो पाता है फलत: मूल्यांकन सम्पन्न हो पाता है। इसलिए न्याय सुलभ होना भी सहज हो जाता है। पांचवे क्रियाकलाप में मूल्य, धर्म और सत्य बोध होना पाया जाता है अर्थात् सहअस्तित्व रूपी परम सत्य बोध, मानवीयता पूर्ण स्वभाव धर्म रूपी मूल्यों का बोध होना ही बोध का तात्पर्य है। ऐसे अनुभव व प्रमाण बोध के उपरान्त व्यवस्था में जीने, समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने का संकल्प होता है। बोध और संकल्प की महिमा ही है अस्तित्व सहज, वस्तु सहज, स्थिति सहज, गति सहज, विकास सहज, जागृति सहज सत्यता बोध और निर्वाह करने की निष्ठा, संकल्प के रूप में होता ही है। इस प्रकार जागृत जीवन मूल्यों का साक्षात्कार, बोध और संकल्प पूर्वक निष्ठापूर्ण कार्यप्रणाली मानव कुल में प्रमाणित होना ही परिवार व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण है। कम से कम परिवार में व्यवस्था का स्वरूप, कार्य, प्रयोजन स्पष्ट होता है। व्यवस्था का स्वरूप संबंधों को पहचानने के रूप में, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, उत्पादन कार्य में भागीदारी के रूप में स्पष्ट हो जाता है। प्रयोजन अपने आप में कार्य व्यवहार से ही स्पष्ट होना पाया जाता है वह समाधान और समृद्धि है। इस प्रकार बोध पूर्वक प्रवर्तन अर्थात् अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन ही अनुभव बोध सहित होने रहने के आधार पर संकल्पों की दृढ़ता निष्ठा के रूप में प्रमाणित होती है। इस तथ्य को हर व्यक्ति में अध्ययन किया जा सकता है और वैभव की आवश्यकता पूरकता प्रत्येक नर-नारी में देखने को मिलता ही है, इसलिए अध्ययनपूर्वक न्याय, धर्म, सत्य बोध करना एक व्यवहारिक सत्य के रूप में अनुभव किया गया और आंकलित किया गया। इससे सर्वमानव पारंगत को समृद्ध संपन्न होने के लिए मानव परंपरा ही जागृत होने की आवश्यकता है। परंपरा का स्वरूप मानवीयतापूर्ण शिक्षा, मानवीयतापूर्ण संस्कार, मानवीयतापूर्ण संविधान और मानवीयतापूर्ण व्यवस्था के रूप में ही नित्य वैभव और गति होना ही सार्थकता है। ऐसी सार्थक स्थिति को परंपरा में प्रमाणित करने के लिए सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान को अध्ययनगम्य करना ही होगा। इस विधि से मानव परंपरा जागृत होने और वैभवित होने की संभावनाएं स्पष्ट है। इसी क्रम में आवर्तनशीलता का साक्षात्कार भी एक अनिवार्य बिन्दु है। यह स्वयं अर्थात् जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान पूरकता विधि से आवर्तनशील है।

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