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वस्तुओं, घटनाओं से व्यंजित होना दिखाई पड़ती हैं। व्यंजित होने का तात्पर्य तुरंत ही उस ओर (समीचीन शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) अपने प्रवृत्ति को नियोजित करता हुआ से है। इसलिए आदिमानव का भी समीचीन स्थिति, गति, घटनाओं से व्यंजित होना सहज सिद्ध होता है।

एक से अधिक मानवों के लिए सर्वप्रथम रूप के आधार पर संबंधों को पहचानना स्वाभाविक रहा है फलस्वरूप आवश्यकताएं उद्गमित होना अर्थात् आशा-विचार-इच्छा के रूप में गतित होना रहा है। इसी क्रम में खाने-पीने के लिए पहली आवश्यकता, बैठने-सोने स्थल की आवश्यकता, शीत-वात-वर्षा से बचने के लिए आवश्कताएं उद्गमित होती रही। इसी क्रम में पत्ते, वल्कल और घास-फूस से काम लेता हुआ मानव कन्द-मूल तक पहचानने की क्रिया सम्पादित करता रहा। साथ ही क्रूर जीव जानवरों के उपद्रवों से बचने के उपायों को खोजता ही रहा। साथ ही प्रजनन कार्य सम्पन्न होता ही रहा। संतानों का पालन-पोषण-लालन मानव से पूर्व में रही जीवों से भिन्नता को पहचानना रहे आया।

यह भी स्वाभाविक है कि विभिन्न भौगोलिक परिस्थिति की जलवायु भिन्नताएं तब भी रही हैं, अभी भी हैं। अस्तु ऐसी विभिन्न जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों में शुभारंभ किए हुए मानव परंपराएं अपने-अपने रूप (नस्ल) और रंग के साथ होती रही। यही मूलत: जब एक दूसरे जलवायु में पले मानव को देखने को मिला कि नस्ल और रंग की भिन्नतावश द्वेष अथवा भय के आधार पर परस्पर मार-पीट करते आए। यह क्रम जंगलों से कबीला, ग्राम-समूह तक पहुंचने के लिए मानव में पाई जाने वाली कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता की महिमावश प्रवृत्ति और प्रयास स्फूर्त होता रहा। क्योंकि हर मानव में कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता प्रमाणित होते ही रहा। यही प्रवृत्ति और कल्पनाशीलता सहज उद्गमन का भी तात्पर्य है। यही पीढ़ी से पीढ़ी में परिवर्तन का कारण रहा है। परिवर्तन वन-वनस्पति-काष्ठ युग से शिलायुग और धातुयुग तक पहुँचा। यह ग्राम और कबीले के रूप में जीने तक पहुँच गया। कुछ परिवेश में जीते आये मानव ने जीव-जानवरों को अपने आहार के रूप में स्वीकारा, कुछ परिवेश में जीये हुए मानव, वनस्पतियों से पेट भरना सीखते आया। अधिकांश मानव जो आहार को वनस्पतियों से प्राप्त करते रहे हैं वे युग परिवर्तन क्रम में कृषि कार्य को अपनाए। यहाँ यह तथ्य स्मरणीय है कि वन से मानव के खाने योग्य चीजों को अनाज के रूप में भी पहचानना आरंभ हुआ। साथ ही जंगल में पाये जाने वाले कुछ प्रकार के जानवरों को स्वाभाविक रूप में ही मानव ने अपनी नैसर्गिकता प्रदान कर, उपयोग करने के अर्थ को सार्थक करते आया। उपयोगिताएं कृषि के लिए सहायक होने के क्रम में और आहार के लिए सहायक होने के क्रम में सोची गई। इस स्थिति तक मूलत: आवश्यकताएं खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने के साथ-साथ सोने और रहने के निश्चित स्थान, उसके स्वरूप तक पहुँचे। नस्ल और रंग संबंधी भय और द्वेष, विविध कबीला समूहों

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