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धीरता–वीरता-उदारता को और जागृतिपूर्णता के प्रमाण स्वरूप दया, कृपा, करूणा को प्रमाणित करता है।

उदारता को हम अपने ही कार्यकलापों में, व्यवहारों में इस प्रकार देख सकते हैं कि संबंध संतुलन के उपरान्त तन-मन-धन रूपी अर्थ का उपयोग, सदुपयोग और सुरक्षा करते हैं। सदुपयोग का तात्पर्य शरीर पुष्टि (आहार पूर्वक) शरीर सुरक्षा (आवास, अलंकार पूर्वक) और जीवन जागृति की सार्थकता या चरितार्थता के लिए नियोजन कार्य का नाम है उदारता। सम्पूर्ण प्रकार का आवर्तनशीलता उदारता का ही द्योतक है।

ऊपर कहे गये मानव मूल्यों में से धीरता, वीरता, उदारता को स्वयं निरीक्षण करना एक सहज कार्य और उपलब्धि के रूप में देखा गया है। इसके लिए जीवन तंत्रणा के संबंध में एक संक्षिप्त और स्पष्ट झांकी मानव के सम्मुख प्रस्तुत हो चुकी है जिसमें जीवन के दसों कार्यकलापों को स्पष्ट किया है। यहाँ जीवन का मूल स्वरूप और रचना संबंधी तत्व को सूक्ष्म रूप में इंगित कराया है इसका विशद् अध्ययन ‘अस्तित्व में परमाणु का विकास’ में किया गया है।

जीवन का मूल रूप चैतन्य इकाई गठनपूर्ण परमाणु स्वयं जीवन है। चैतन्य परमाणु गठनपूर्ण परमाणु के रूप में समझा गया है क्योंकि अस्तित्व में संपूर्ण प्रकार के पद और व्यवस्था का आधार केवल परमाणु है। अस्तित्व केवल अविभक्त एवं विभक्त स्वरूप में नित्य वर्तमान है। अविभक्त स्वरूप ही साम्य ऊर्जामय सत्ता है। ऐसे ऊर्जामय सत्ता में संपूर्ण विभक्त अस्तित्व (अनंत एक-एक के रूप में दिखने वाला) डूबा हुआ, घिरा हुआ और भीगा हुआ दिखाई पड़ता है। भीगा हुआ का साक्ष्य ऊर्जा सम्पन्नता के रूप में; घिरा हुआ का साक्ष्य नियंत्रण तथा डूबा हुआ का साक्ष्य क्रियाशीलता से है। क्रियाशीलता श्रम, गति, परिणाम के रूप में स्पष्ट है। रूप-अरूपात्मक अस्तित्व अविभाज्य रूप में नित्य वर्तमान है। रूपात्मक अस्तित्व में मूलत: व्यवस्था का मूल रूप परमाणु के रूप में देखा गया है। एक से अधिक परमाणु ही संगठित होकर अणु के रूप में, अणुएं रचित होकर अनेक पिण्डों के रूप में स्पष्ट है। इसी क्रम में भौतिक-रासायनिक रचना-विरचना निरंतर पूरक विधि से होना पाया जाता है। इसी रासायनिक रचना के श्रेष्ठता क्रम में वनस्पति संसार, विभिन्न जीव शरीर और मानव शरीर रचनाओं को समझा गया है। इसको विकास क्रम के नाम से जाना जाता है। इसमें रचना में श्रेष्ठता क्रम ही मूल्यांकित होता है। परमाणु में विकास क्रम में ये सभी प्रकार के रासायनिक-भौतिक अभिव्यक्तियाँ सम्पन्न हो जाते हैं। कोई-कोई परमाणु आवश्यकीय सभी स्थितियों को पाकर गठनपूर्णता से सम्पन्न हो जाते हैं। यही गठनपूर्ण परमाणु चैतन्य पद में संक्रमित हो जाते हैं। इसी को ‘जीवन’ नाम से संबोधित किया गया है। जीवन भार बंधन और अणु बंधन मुक्त होने के आधार पर परमाणु के सभी रचना सहित अपने कार्य गति पथ रचना स्वयं ही कर लेता है। इसका आधार जीवन

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