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सहज आशा है। आशा का तात्पर्य ही है आशय सहित यत्नशील रहना। चैतन्य पद में संक्रमित होते ही आशा सहित कार्य करने की अर्हता जीवन में उद्गमित होता है। ऐसी महिमा के साथ जीवन में प्रतिष्ठित सभी क्रियाएं क्रम से अर्थात् जागृति क्रम से व्यक्त होते हैं। जागृति क्रम में होने वाले जीवन कार्यों को पहले इंगित किया जा चुका है। इस प्रकार जीवन रचना एक गठनपूर्ण परमाणु है, रासायनिक-भौतिक क्रियाकलापों में भाग लेने वाले परमाणुओं में जो श्रम-गति-परिणाम देखने को मिलता है उसमें से परिणाम का अमरत्व, गठनपूर्ण परमाणु में स्पष्ट होता है। यह परमाणु में विकास का एक सोपान है। ऐसे जीवन ही मानव शरीर द्वारा जागृति को प्रमाणित करने के क्रम में श्रम का विश्राम को मानव चेतना के रूप में स्पष्ट कर देता है। इसका प्रमाण समाधान = विश्राम = जागृति है। इस विधि से श्रम का विश्राम अर्थात् समाधान पद में ही मानवीयता पूर्ण समाज और व्यवस्था अपने अखण्डता और सार्वभौमता के साथ वैभवित होना समीचीन है। ऐसी जागृतिपूर्वक परंपरा स्थापित होना और उसकी निरंतरता होना ही वैभव का तात्पर्य है।

प्रत्येक मानव सहज रूप में समाधान को स्वीकारता है न कि समस्या को क्योंकि समाधान सुख के रूप में ही होना समझ में आता है। अस्तु मानव व्यवस्था में जीने, व्यवहृत होने के फलस्वरूप ही नित्य समाधान अक्षुण्ण रहना पाया जाता है। ऐसी जागृत परंपरा ही जीवन में क्रियापूर्णता का साक्ष्य है। इनकी महिमा क्रम में जीवन में जागृति पूर्णता का होना जिसका कार्यरूप अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान सहज नित्य अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन पूर्वक प्रमाणित होना देखा जाता है। यही जागृति और जागृति पूर्णता प्रत्येक मानव में अपेक्षित है। इसे देव-दिव्य चेतना रूप में जागृति पूर्ण पद के रूप में पहचाना गया है। यही पद मुक्ति प्रमाणित होता है। इसी पद में मानव ही देव मानव, दिव्य मानव के रूप में अपने ज्ञान-दर्शन-आचरण पूर्वक सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करता है। ऐसे देव मानव दिव्य मानव पद में सर्वाधिक उपकार होना समीचीन है। उपकारी का तात्पर्य है उपाय पूर्वक जीवन जागृत कार्य-व्यवहार में पारंगत और समर्थ होने में सहायक होने से है। इस पद को आचरणपूर्णता नाम से संबोधित किया है। इस प्रकार परिणाम का अमरत्व, श्रम का विश्राम और गति का गंतव्य ही सहअस्तित्व में परमाणु सहज विकास होने के अनन्तर जीवन लक्ष्य होना, सार्थक होने का तथ्य अध्ययनगम्य है। इस प्रकार इस धरती में भ्रमात्मक मानव समुदायों से निर्भ्रम मानव, अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था एवं मानव परंपरा वैभवित होने का अध्ययनगम्य रूप में प्रस्तुत है।

पहले धीरता, वीरता, उदारता का स्वरूप स्पष्ट किया जा चुका है। मानव मूल्य के रूप में दया, कृपा, करूणा, जीवन जागृति पूर्णता का प्रमाण रूप में अथवा साक्ष्य रूप में व्यवहृत होना पाया जाता है। दया को मानव के आचरण में जीने देकर स्वयं जीने के रूप में देखा गया है। जीने देने के क्रम में पात्रता के

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