व्यक्ति स्वयं में समझ सकता है। इसी प्रकार चिंतन, चित्रण के साथ तुलन, विश्लेषण संतुलित होने की स्थिति में शांति समझ में आता है। बोध और ऋतंभरा के साथ चिंतन-चित्रण संतुलित होने की स्थिति में संतोष समझ में आता है। अनुभव और प्रामाणिकता के साथ बोध संकल्प रूपी ऋतम्भरा संतुलित होने की स्थिति में आनन्द समझ में आता है। इसमें सहजता यही है कि प्रत्येक मानव अपने में इन जीवन सहज क्रियाओं के साथ स्वयं से, स्वयं में, स्वयं के लिए परीक्षण-निरीक्षण पूर्वक सत्यापित करना बनता है। इस विधि से अस्तित्व सहज यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता को समझना संभव है। अस्तित्व ही परम सत्य वास्तविक और यथार्थ है। प्रत्येक एक अस्तित्व में अविभाज्य है।
मानव मूल्य धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करूणा रूप में होना समझ में आता है। संबंधों का पहचान, मूल्यों का निर्वाह विधि से धीरता प्रमाणित होता है अथवा धीरता को हम प्रमाणित करते हैं। यह परस्पर संबंध संतुलन का द्योतक है। संपूर्ण संबंधों में साम्य रूप में वर्तमान विद्यमान वस्तु का नाम ही विश्वास है। वस्तु के रूप में विश्वास संबंध संतुलन के रूप में ही समझ में आता है। पहले भी यह उल्लेख किया गया था धरती, जल, वायु, वन, खनिज, वनस्पति, जीवों के साथ उन-उनके स्वभाव-धर्म के आधार पर संबंध संतुलन बनाए रखने में मानव समर्थ हो चुका है। मानव-मानव के साथ संबंध संतुलन बनाए रखने में आवश्यकता प्रतीक्षा बनी ही है। अतएव आवर्तनशील अर्थ व्यवस्था क्रिया प्रणाली मानव संबंधों में संतुलन के उपरान्त ही सार्थक हो पाता है। उदाहरण के रूप में यह देख सकते हैं कि जितना दूर तक अर्थात् एक व्यक्ति के साथ-साथ कई व्यक्ति के साथ जो अपने संबंध को संतुलित बनाए रखता है उसका सम्पूर्ण वस्तु लाभ हानि मुक्त विधि से उपयोग हो जाता है तथा जहाँ जहाँ तक संबंध संतुलन नहीं है वहाँ वहाँ तक भ्रमवश लाभोन्माद छाया ही रहता है। इसे प्रत्येक मानव अपने परिवेशगत मानवों के साथ निरीक्षण कर सकता है और प्रमाणित हो सकता है। वीरता को हम न्याय को सर्वसुलभ करने योग्य प्रवृत्तियों, कार्यकलापों और आचरणों के रूप में समझते हैं। एक उदाहरण ऐसा भी देखा जा सकता है कहीं भी दो व्यक्ति वाद ग्रस्त है, किसी मुद्दे में भ्रमित होकर ही ऐसा विवाद होना देखा गया है। ऐसे विवाद के मूल में दोनों गलत हों अथवा दोनों में से एक अवश्य गलत हो तभी वाद-विवाद होना विश्लेषित होता है। ऐसी स्थिति में वे दोनों परस्पर अपने संबंधों को पहचाने नहीं रहते हैं इसलिए वाद-विवाद करने में कटिबद्ध हो जाते हैं। संबंध को समझने के उपरान्त एक दूसरे के बीच उत्पन्न मतभेदों का निराकरण करने का सामर्थ्य उदय होता ही है। इसी सिद्धांत के आधार पर तीसरा उन दोनों के परस्परता में संबंध संतुलन को स्थापित करने के लिए प्रयत्न करें वाद-विवाद दूर हो जाता है। परस्पर मानव के साथ संबंध स्थापित रहता ही है इसे जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही जागृति का तात्पर्य है। जागृतिपूर्वक ही मानव