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मानव संतुलन प्रधानत: अध्ययन और योजना का आधार बिन्दु हैं। यह तो बहुत स्पष्ट है मानव परम्परा की अक्षुण्णता धरती की संतुलन और स्वस्थता पर निर्भर है।

मानव का संतुलन जीवन जागृति पर आधारित है। जीवन जागृति सुलभता पीढ़ी से पीढ़ी के लिए जागृत परंपरा पर ही आधारित है। (इस बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक मानव विभिन्न रहस्यमयी अहमतावादी अस्मिता सहित संघर्ष, कुण्ठा, निराशा, भय, सशंकता, द्रोह, विद्रोह, घृणा उपेक्षा जैसी अवांछनीय प्रताड़नाओं से प्रताड़ित होता ही आया हुआ है। इसे हम सब अच्छी तरह से समझ गए हैं अथवा समझ सकते हैं। इसी के साथ जो कुछ भी संग्रह और भोग के प्रति प्रलोभन है, जिसमें क्षणिक रूप में राहत प्रतीत होते हुए भी उसके दूसरे क्षणों में राहत से अधिक भय, सशंकता व्यापता हुआ देखा गया है। इसे प्रत्येक व्यक्ति, समुदाय, समाजसेवी संस्था, राष्ट्र संस्था, धर्म संस्था और व्यापार संस्था और प्रौद्योगिकी संस्थाओं में परीक्षण निरीक्षण पूर्वक सर्वेक्षण कर सकते हैं। इसे हम भले प्रकार से समझ चुके हैं।) अतएव आवर्तनशील विधि से स्वायत्त परिवार मानव, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में भागीदारी की नित्य संभावना वर्तमान में कार्यक्रम सहित समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्वपूर्ण शुभ और उसकी अक्षुण्णता को अनुभव करना, प्रमाणित करना, उत्सवित होना समीचीन है। इसके लिए दो ही बिन्दु का विशद् अध्ययन की आवश्यकता है। वह है मानव परिभाषा सहज जीने की कला, विचारशैली और अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन और सहअस्तित्व साक्षात्कार। इसी तथ्य के साथ सम्पूर्ण मानव में संतुलन सूत्र और यह धरती का व्यवस्था में पूरक होने का सूत्र मानव परंपरा के लिए करतलगत होता है। इसी के अंगभूत यह आवर्तनशील चिंतन और शास्त्र है।

आवर्तनशील ऊर्जा स्रोत के क्रम में सूर्य उष्मा से विद्युत और उष्मा कार्य-भट्टियों को प्राप्त कर लेना सहज है। सूर्य उष्मा भट्टी के स्वरूप को चूना पत्थर आदि से संबंधित पक्वकारी क्रियाकलापों को सम्पादित करने के लिए चित्रित करना आवश्यक है इसका स्रोत सूर्य का प्रतिबिम्बन को किरण के रूप में प्राप्त करना, वह किरण के साथ उष्मा प्रवाह होना, फलस्वरूप रुई, लकड़ी आदि वस्तुओं में आग लगने वाली क्रिया के रूप में देखा जा सकता है। इस प्रयोग के आधार पर अर्ध गोलाकार भट्टी के रूप में रचना किया जा सकता है इसमें उत्पन्न अथवा इसमें अर्जित उष्मा से भट्टी से बनी हुए सभी वस्तुयें और चूना पत्थर पकना सहज है। यह भी आवर्तनशील विधि से व्यवस्था में प्रमाणित हो जाता है। क्योंकि सूर्य उष्मा का परावर्तन सूर्य बिंब अपने में स्वभावगति को प्राप्त करने के क्रम में होना पाया जाता है। सूर्य बिंब आज की स्थिति में आवेशित गति में होने के फलस्वरूप उष्मा का परावर्तन भावी है। परावर्तित सभी उष्मा विभिन्न ग्रह-गोलों में पच जाना पाया जाता है। इस क्रम में पचाया हुआ भी स्वभाव गति में होना और स्वभावगति में आने के

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