है। यह भी देखा गया है कि पानी ढाल की ओर अंतत: दौड़ता है। ऐसा ढाल अंतत: नाला, नदी, समुद्र के रूप में होना देखा गया है। पानी में यह भी गुण देखा गया है मिट्टी को गीला करने का अथवा मिट्टी गीला होने का कार्य को होता हुआ देखा गया। मिट्टी के संयोग में पानी जितनी तादात में होता है, सतह से नीचे जहाँ पानी की स्थिति पायी जाती है, वहाँ तक पहुँचने की गति को देख सकते हैं। इस प्रकार विरल वस्तु, विरल वस्तु के साथ सहअस्तित्वशील होना उनके गतियों, प्रवर्तनों और स्थितियों से प्रमाणित हो जाता है। पानी स्वयं वाष्पित होकर विरल रूप में होकर पुन: बादल के रूप में एकत्रित होना, धरती की उष्मा, बादल की उष्मा, ऋण धनात्मक स्थितियों में वर्षा होना देखा गया। यथा धरती ज्यादा गर्म रहे, धरती का वातावरण कम गर्म रहे उससे कम गर्म बादल होने की स्थिति में पानी बरसना देखा गया है। धरती का वातावरण और धरती ठंडी रहे अर्थात् उष्मा कम हो जाए, बादल अपनी स्थिति को वर्षा में बदलने के क्रिया में ओला पड़ता हुआ, जमा हुआ पानी देखने को मिलता है। इस प्रकार विरल रूप में परिवर्तित पानी पुन: बादल, वर्षा, धरती ढाल की ओर होना स्पष्ट है। यह सब आवर्तनशीलता का द्योतक है। इसी क्रम में ठोस वस्तु, ठोस वस्तु के साथ सहअस्तित्व रूप में होने रहने की क्रियाकलाप यथा ऊपर फेंका हुआ पत्थर, पेड़ से गिरा हुआ पत्ता-फल ये सब ठोस के साथ ठोस वस्तु सहअस्तित्व को प्रमाणित करने के क्रम में क्रिया-विन्यासों को करता हुआ देखने को मिलता है। यह भी इसी के साथ देखने को मिला है कि धरती के साथ-साथ तीनों अवस्थाओं में सहअस्तित्वशील वस्तुओं को उससे भिन्न स्थिति में विस्थापित करने के लिए विदेशी (बाह्य) बल-शक्ति का संयोजन होना आवश्यक है। जैसा विरल वस्तु को धरती में धरती के साथ स्थिर करने में बाह्य बल लगता ही है। पानी को अपने सतह से ऊपर की सतह में विस्थापित करने के लिए बाह्य बल लगता ही है और धरती का अपने सतह में रहे आयी किसी ठोस वस्तु को धरती की सतह से ऊपर विस्थापित करने के लिए बाह्य बल होना आवश्यक है। यथा एक पत्थर को ऊपर फेंकने के लिए बाह्य बल संयोजित होना देखा जाता है। ठोस वस्तु में यह भी एक विशेषता है। धरती के सतह से नीचे में जो वस्तु ठोस रूप में रहती है उसे ऊपर लाने के लिए भी बाह्य बल-शक्ति लगता है। इसे हर मानव प्राय: देखता ही है। यही स्थिति सभी ग्रह-गोलों में होना सहज है। यहाँ इन तथ्यों के वर्णन का प्रयोजन यही रहा कि अन्न, वनस्पतियों की रचना रस और ठोस संयुक्त रूप में होना दिखता है। इसके विरचना क्रम में यह भी देखने को मिलता है कि पदार्थ शनै:-शनै: वाष्पित होकर शुष्क होता है। इसके अनन्तर धरती के संयोग से मिट्टी के सदृष्य हो जाता है। इसी प्रकार एक छोटे से छोटे तृण से बड़े से बड़े वृक्षों को भी देखा गया है। अस्तु इस धरती में रासायनिक रचना संसार ही धरती के उर्वर होने का स्रोत है।
रासायनिक संसार पदार्थावस्था से उदात्तीकृत द्रव्यों के रूप में दृष्टव्य हैं। रासायनिक द्रव्यों का तात्पर्य है एक से अधिक प्रजाति के अणुएं निश्चित अनुपात में मिलकर दोनों, अपने-अपने आचरणों को त्याग देते हैं