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पर भी विचार करने पर पता लगता है लाभोन्मादी अर्थव्यवस्था के स्थान पर विकल्प की आवश्यकता है। अस्तु आवर्तनशील अर्थव्यवस्था को समझना एक स्वाभाविक एवं आवश्यकीय अध्ययन है।

आवर्तनशीलता हर मानव में समाहित जीवन शक्तियों का परावर्तन और प्रत्यावर्तन में जीवन बलों का पुष्टि कार्य है। मानव में तन-मन-धन के रूप में अर्थ की परिभाषा विद्यमान है इसे हर मानव में देखना संभव है। इसमें पारंगत बनाना शैक्षणिक विधि से सहज सुलभ है फलत: लोकव्यापीकरण होता है। प्रकारान्तर से भ्रमित मानव परावर्तन-प्रत्यावर्तन क्रिया करता ही है। इनमें निहित उद्देश्य ही संतुष्टि और असंतुष्टि का कारण बनता है। भोग मानसिकता से जितने भी परावर्तन क्रिया करता है प्रत्यावर्तन में उसका असंतुष्टि बना ही रहती है। जैसे-पाँचों ज्ञानेन्द्रियों द्वारा कोई भी भोग-प्रक्रिया को सम्पादित करें, उसकी निरंतरता नहीं हो पाती। इसीलिए भोग में असंतुष्टि का होना भी पाया जाता है। जबकि हर मानव हर समय संतुष्ट रहना चाहता है। संतुष्टि का इच्छुक हर व्यक्ति है। हर व्यक्ति के सम्मुख यह विचारणीय बिन्दु है कि क्या व्यक्ति सदा भोगवादी विधि से संतुष्ट रह सकता है? क्या असंतुष्ट रहना जरूरी है? क्या संतुष्टि की निरंतरता हो पाती है? क्या असंतुष्टि ही असंतुष्टि हाथ लगती है? इन प्रश्नों को परीशीलन करने के पहले हमें इन बातों का ध्यान रहना आवश्यक है कि मैं (मानव) जीवन और शरीर का संयुक्त रूप हूं। जीवन नित्य है, शरीर जीवन के लिए सामयिक घटना है। इस प्रकार शरीर यात्रा तक मानव कहलाता हूँ और शरीर यात्रा के अनन्तर जीवन रहता ही है। जीवन, शरीर यात्रा समय में अपने जागृति को प्रमाणित करना उद्देश्य है। इस आधार पर और मानसिकता से उक्त बिन्दुओं का विश्लेषण करना संभव है।

पहला विचारणीय पक्ष सदा-सदा मानव तृप्त हो सकता है? इसका उत्तर हाँ हो सकता है। इसके बाद इससे लगा पुन: प्रश्न होता है कैसे हो सकता है? इसके उत्तर में साफ-साफ मानव ही विश्लेषण की वस्तु के रूप में दिखाई पड़ती है। हर मानव में संतुष्टि स्वीकृत है, असंतुष्टि स्वीकृत नहीं हैं। संतुष्टि पाने के लिए ही मानव परंपरा में अर्पित रहता है भले ही वह छोटा सा समुदाय क्यों न हो? अभी तक मानव कुल विविध समुदाय में ही गण्य हो पाया है। इसीलिए हर मानव जन्म से मानव कुल में ही अर्थात् समुदाय में अर्पित होना दृष्टव्य है। मानव शरीर ही जीवन जागृति को व्यक्त करने योग्य रचना है। ऐसी शरीर रचना की परंपरा स्थापित है। हर समुदाय में भी ऐसे ही शरीर रचना होने के व्यवस्था बन चुकी है। मानव शरीर रचना में मुख्य अंग मेधस रचना ही है। मेधस रचना के साथ ही कार्य तंत्रणा और ज्ञान तंत्रणा विधि निहित है, जीवन ही इन तंत्रणा विधियों से ज्ञान तंत्रणा पूर्वक कर्म तंत्रणा सम्पन्न करता है। ज्ञान तंत्रणा को हम ज्ञानेन्द्रियों में पहचान सकते हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ शब्द स्पर्श, रूप, रस, गंधात्मक साक्ष्यों सहित प्रमाणित है। इन्हीं क्रियाओं के साथ ही मानव को जीवंत रहना प्रमाणित होता है। इन क्रियाओं के लुप्त होने के उपरान्त

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