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के लिए यथावत् शक्तियाँ उर्मित रहता हुआ देखने को मिलता है। उर्मित रहने का तात्पर्य उदयशील रहने से है। उदयशीलता का तात्पर्य निरंतर उदितोदित रहने से है। उदितोदित का तात्पर्य नित्य वर्तमानता से है। इस प्रकार प्रत्येक मानव में जीवन शक्तियाँ और बल नित्य वर्तमान होना स्वाभाविक है। शरीर यात्रा के पहले भी जीवन यथावत् रहता ही है। शरीर यात्रा के अनन्तर जीवन रहता ही है। जीवन सहज रचना कार्य के संबंध में अध्ययन सहज विधि से स्पष्ट की जा चुकी है। यह सूत्र अस्तित्व न तो घटती न तो बढ़ती- न ही पुरानी होती है। यह अस्तित्व सहज अनन्त वस्तुओं में व्यापकता सहज सहअस्तित्व के आधार पर स्पष्ट है। अस्तित्व में चारों अवस्थाएं नियति सहज अभिव्यक्ति है। नियति सहज कृति का तात्पर्य उपयोगिता एवं पूरकता और विकास जागृति सहज अभिव्यक्ति से है। सहअस्तित्व स्वयं क्रमबद्ध प्रणाली होने के कारण सम्पूर्ण घटना और प्रयोजन पूर्व घटना-प्रयोजन से जुड़ी हुई होते हैं। फलस्वरूप मूल रूप से गुंथी हुई, जुड़ी हुई, स्पष्ट हो जाते हैं। मूल रूप सहअस्तित्व ही है। जो नित्य वर्तमान ही है। वर्तमान त्रिकालाबाध सत्य है। परम सत्य रूपी वर्तमान में प्रमाणित होना ही सत्य का तात्पर्य है। वर्तमान स्वयं सहअस्तित्व और उसकी निरंतरता होना देखने को मिलता है। मानव भी अस्तित्व में अविभाज्य वस्तु होते हुए दृष्टापद प्रतिष्ठावश जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने की संपदा सम्पन्न है। इसलिए सत्य में राहत पाना मानव का अभीप्सा बनी हुई है। अभीप्सा का तात्पर्य अभ्युदय पूर्ण इच्छा से है। अभ्युदय का तात्पर्य सर्वतोमुखी समाधान व उसकी निरंतरता से है। सर्वतोमुखी समाधान सहअस्तित्व सहज वर्तमान में मानव का दृष्टा, कर्ता व भोक्ता पद को प्रमाणित करने से हैं। इस प्रकार मानव अपने दृष्टा पद प्रतिष्ठा सहज रूप से ही मूल्यांकन कार्य को संपादित कर तृप्ति को पाता है। ऐसे मूल्यांकन के मूल में प्रत्येक उत्पादित वस्तु के उपयोगिता, सदुपयोगिता प्रयोजन का आधार और उसका मूल्यांकन संभव हो जाता है। इस प्रकार हम मानव परंपरा रूपी (गति-प्रयोजन विहिन) राष्ट्रीय कोष, अन्तर्राष्ट्रीय कोष, सुवर्ण द्रव्य मूलक मूल्यांकन से मुक्त होकर श्रम नियोजन, श्रम मूल्य और मूल्यांकन विनिमय प्रणाली पूर्णतया संभव है और समीचीन है। जागृतिपूर्वक उपयोगिता, सदुपयोगिता क्रम को मूल्यांकन के लिए पहचानना सहज है। इसी तारतम्य में तृप्ति और उसकी निरंतरता सर्वसुलभ होता है।

जीवन सहज कार्यकलाप के अनुसार आशा, विचार, इच्छा के साथ-साथ प्रिय-हित-लाभ रूपी नजरिया क्रियाशील रहना भ्रमित मानव का प्रकाशन है भ्रमित अवस्था की यही लम्बाई - चौड़ाई है। इन्हीं के विस्तार वांङ्गमय के साथ-साथ भय और प्रलोभन का पुट देते हुए वांङ्गमयों का निर्माण होता रहा है। ऐसे वांङ्गमयों को (भय और प्रलोभनवादी परिकथाओं-कथाओं) बड़े सम्मान से लोक श्रवण स्वीकारता हुआ देखा गया। इससे स्पष्ट हो जाता है भय और प्रलोभन से चलकर आस्था तक पहुँचना जागृति क्रम में एक मंजिल मान लिया गया। आस्थावाद से ही अधिकाधिक आश्वासन, भय से राहत पाने का आश्वासन बना रहा है। कड़ी

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