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जागृति मूलत:, आमूलत: अथवा सम्पूर्णतया सहज होना, प्रमाणित होना तब संभव हुआ जब अथवा जिस क्षण में जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में पारंगत और प्रमाणित हुए। सम्पूर्ण अस्तित्व ही सहअस्तित्व के रूप में प्रमाणित होना तभी संभव हो पाया जब जीवन में जागृति संभव हुई। जीवन का स्वरूप रचना, शक्ति, बल, लक्ष्य के संबंध में विभिन्न स्थली में स्पष्ट किया जा चुका है। जीवन रचना, गठनपूर्ण परमाणु (चैतन्य इकाई) सभी मानव में समान है, इसी प्रकार जीवन शक्ति और बल अक्षय होने के कारण समान और जीवन का लक्ष्य केवल जागृति होने के कारण सभी नस्ल, रंग, जाति, वर्ग, मत, संप्रदाय, भाषा, देश में रहने वाले सभी मानव में समान होना पाया जाता है। यही जीवन ज्ञान पर आधारित विचार है और शास्त्रों को प्रणयन और अवलोकन करने का आधार है। जीवन ज्ञान हर व्यक्ति में, से, के लिए; हर देश काल में संभव है। इसी आधार पर आवर्तनशील अर्थशास्त्र का प्रणयन भी संभव हुआ। अस्तु, जीवन ज्ञान और अस्तित्व दर्शन का सहज प्रमाण में ही आवर्तनशीलता को अर्थशास्त्र विधा में पहचानना सहज है। इस तारतम्य में यह भी ध्यान में रहना आवश्यक है कि आवर्तनशील अर्थशास्त्र और व्यवस्था को साक्षात्कार करने के लिए, दूसरे भाषा में देखने के लिए जीवन ज्ञान अथवा जीवन विद्या, अस्तित्व दर्शन में पारंगत होना, मानवीयता पूर्ण आचरण में प्रमाणित रहना आवश्यक है। इसी आधार पर जागृति प्रमाणित हो पाती है और जागृतिपूर्वक मानव आवर्तनशील अर्थशास्त्र में जीना हो पाता है। इसके लिए यह भी बल मिलता है इस प्रकार आवश्यकता भी समीचीन हो गया कि अभी तक किये गये ईंधन स्त्रोत, उत्पादन कार्य विधि और विपुल उत्पादन और लाभ और संग्रह का लक्ष्य आधार अब पुनर्विचार के योग्य हो चुके हैं। इसके मूल में लक्ष्य विहीन संग्रह ही राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा के आधार पर आधारित मूल्यांकन विधियों को पुनः परिशीलन करने का कार्य इस अर्थशास्त्र के इस अध्याय में एक प्रधान बिन्दु है। इसके परिशीलन क्रम में स्वाभाविक ही सहअस्तित्व विधिपूर्वक ईंधन योजना स्रोत, संप्राप्ति विधाओं में भी परिशीलन और विकल्पों को पहचानने की आवश्यकता बलवती होगी।

इस धरती के मानव जहाँ तक उत्पादन कार्यों में पारंगत हो पाये हैं इसके लिए जो यंत्र संपादन विधि हस्तगत किये हैं यह कोई अर्थशास्त्र में व्यतिरेक पद्धति नहीं हैं। सहअस्तित्ववादी अर्थव्यवस्था विरोधी उत्पादन केवल युद्ध सामग्री का निर्माण है। युद्ध मानसिकता सहअस्तित्व विरोधी, मानवीयतापूर्ण मानसिकता के विरोधी होने के कारण, युद्ध सामग्री संबंधी सभी प्रकार के साधन अमानवीय होना स्पष्ट है। दूसरे विधि से युद्ध मानसिकता-युद्धाभ्यास किसी संस्कृति-सभ्यता का आधार नहीं हो पाया। जबकि भक्ति और विरक्ति संबंधी मानसिकता से श्रेष्ठ संस्कृति की कल्पना करते हुये भी संभव नहीं हो पाया। संग्रह विधि से श्रेष्ठ संस्कृति की संभावना बनती ही नहीं है। मानव जाति अभी तक इतना ही कर पाया है। अर्थशास्त्र का सूझ-बूझ संग्रह और युद्ध को बरकरार रखने के आधार पर ही विकसित हुई है। इन तथ्यों के आधार

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