सिर कूटा करते हैं यह सर्वविदित है। वस्तु व्यापार के अनन्तर सातवां प्रक्रिया है, प्रौद्योगिकी व्यापार। उद्योगों में अनेक विद्वान और तकनीकी सम्पन्न व्यक्तियों को वेतन भोगियों के रूप में खरीदने की व्यवस्था बनी रहती है। हर उद्योगों में स्थापना दिवस से ही लाभाकांक्षा समाया रहता है। इसका आंकड़ा क्रम से एक-एक व्यक्ति की कार्यकलापों से उत्पादन, उसका तादात, गुणवत्ता, उसका प्रचलित पत्र-मुद्रा मूल्य, उस पर आयी संपूर्ण प्रकार का व्यय और उसका ब्याज पूर्णतया वापस होने के उपरांत लाभ का बिन्दु आरंभ होता है। वह कितने बड़े संख्या में यथा 1, 2, 3, 4, .., 10, 20, ... क्रम से हजारों, लाखों, करोड़ों संख्या में अंत विहीन होने के क्रम में सफलता, सामान्य सफलता, अल्प सफलता और असफलता मानी जाती है। ये सभी प्रौद्योगिकी संसार से सम्बद्ध हर व्यक्ति को विदित है।
सम्पूर्ण उत्पादनों को कृषि, पशुपालन और उद्योग के रूप में समझा गया है। कृषि व पशुपालन संबंधी उत्पादन कार्य भी लाभाकांक्षा में आना सहज रहा। बाकी सभी व्यापार कार्य में प्रसक्त हुए। फलत: कृषि भी लाभाकांक्षा से पीड़ित होता रहा। चाहे कृषि उपज हो अथवा प्रौद्योगिकी उपज हो, लाभाकांक्षा बनी ही है। इतना ही नहीं शिक्षा और ज्ञान संबंधी आदान-प्रदान भी व्यापारोन्मुखी लाभाकांक्षी संग्रहवादी होने के कारण से भोगोन्मादी समाजशास्त्र का प्रचलन हुआ। इस क्रम में मानव परंपरा भोगवादी-संग्रहवादी सभ्यता के लिए विवश होता गया। उल्लेखनीय तथ्य यही रहा संग्रह का तृप्ति बिन्दु किसी भी देश काल में किसी एक व्यक्ति को भी नहीं मिल पाया। इसका प्रभाव सभी वर्ग पर प्रभावित है। इसमें कुछ लोग ऐसे सोचते हैं कि अध्यात्मवादी विचार और भौतिकवादी विचार इन्हीं में कहीं संतुलन बिन्दु की आवश्यकता है। अध्यात्मवादी विचार के अनुसार अन्तरमुखी विचार होना पाया जाता है और भौतिकवादी विधि से बर्हिमुखी विचार होता है। बर्हिमुखी विचार से विज्ञान का अनुसंधान होता है और अर्न्तमुखी विचार से विज्ञान का विकास नहीं होता है। स्वान्त: सुख या शांति की संभावना बनती है इन कारणों के साथ-साथ मानव को कुछ देर अन्तर्मुखी, कुछ देर बहिर्मुखी रहना चाहिए ऐसी मान्यता पर कुछ लोग अपना मत व्यक्त करते हैं। इस विधि में हर वर्ग, हर तबका, हर जाति, हर संस्कृति यथास्थिति को बनाए रखने के लिए संभावनाओं पर बल देते हैं। इसका प्रबोधन अधिकांश रूप में विज्ञान व्यक्ति जो अपने संग्रह कार्य में जुटे रहते हैं। विद्यार्थियों को इन बातों के लिए प्रेरणा देते हैं। फलस्वरूप ऐसे प्रयासों का निरर्थक होना भावी हो जाता है। इसी क्रम में यह भी बताया करते हैं, ऐसा बैठो, ऐसा सोचो, ऐसा ध्यान करों, किसी एक भंगिमा-मुद्रा में कुछ देर बैठे रहने का अभ्यास होने पर किसी को ध्यान होना-करना मान लेते हैं। यह भी इसके साथ-साथ देखा गया है इन सभी प्रकार की साधनाएं अंतरतुष्टि का साधन मानी जाती है। जबकि अंतरतुष्टि जागृति के रूप में ही होना पाया जाता है।