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सहज है। जागृति पर्यन्त प्रयत्नशील रहना स्वाभाविक है। इस प्रकार श्रम नियोजन शिष्टता, सभ्यता संबंधी संपूर्ण विन्यास ज्ञानेन्द्रियों-कर्मेन्द्रियों का संयुक्त कार्यकलापों में देखा जाता है। ज्ञानेन्द्रियों का नियंत्रण आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा और प्रमाण जैसी अक्षय शक्तियों से सम्पन्न होता हुआ देखने को मिलता है। आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा व प्रमाण शक्तियाँ क्रम से चयन, विश्लेषण, चित्रण, संकल्प और प्रामाणिकताएं सम्प्रेषित हो पाता है यही परावर्तन में क्रम से आस्वादन, तुलन, चिंतन, बोध और अनुभव प्रत्यावर्तन के रूप में कार्य करता हुआ स्पष्ट होता है। यह क्रियाकलाप को आत्मा अनुभव के रूप में, बुद्धि बोध के रूप में, चित्त चिंतन के रूप में, वृत्ति तुलन के रूप में और मन आस्वादन के रूप में जीवन सहज अक्षय बल को प्रमाणित करते हैं। यही मानव में होने वाला मौलिक क्रियाकलाप है। इसी के आधार पर आवश्यकता और संभावना, संपूर्ण शास्त्र को प्रमाणित करने के लिए हर व्यक्ति समीचीन है। इसके लिए नित्य स्रोत सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व अनुभूत प्रमाण ही है।

अस्तित्व में ही यह धरती अविभाज्य है। इस धरती में ही मानव अविभाज्य है। संपूर्ण मानव का उत्पादन कार्य स्रोत इस धरती में ही विद्यमान पदार्थ, प्राण, जीवावस्था सहज वस्तुएं इन्हीं में कहीं श्रम नियोजन करने का अवसर हर व्यक्ति में, से, के लिए रहता ही है। यह धरती अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण होना पाया जाता है क्योंकि यह धरती सभी ओर से विभिन्न प्रकार के विरल वस्तुओं से घिरा रहना पाया जाता है। जहाँ तक ऐसे विरल वस्तुएं इस धरती के सभी ओर घिरे हुए है वहाँ तक इस धरती का वातावरण होना पाया जाता है। यही इस धरती का वातावरण रेखा भी है। प्रमुख रूप से श्रम कार्य का क्षेत्र इस धरती पर ही होना पाया जाता है।

समृद्धि सामान्य आकांक्षा और महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तुओं के आधार पर हो पाता है न कि मुद्रा के आधार पर। इसका दूसरा भी गवाही यही है सामान्य आकांक्षा और महत्वाकांक्षा के वस्तुओं से ही मानव का तृप्ति अथवा सर्वमानव का तृप्ति है न कि मुद्रा से। मुद्रा कितना भी होने पर वस्तु न होने की स्थिति बन सकती है। इसलिए मुद्रा से तृप्ति की संप्रभुता देखने को नहीं मिलती है। जबकि वस्तु हो, स्वस्थ मानव, तृप्ति पाने की संप्रभुता प्रमाणित हो जाती है। संप्रभुता का तात्पर्य निरंतर निश्चित फल प्रयोजन से है। ऐसा निश्चित फल प्रयोजन तृप्ति ही है। सभी शास्त्रों की चरितार्थता स्वस्थ मानव के अर्थ में ही अपेक्षा बन पाती है। संभावनाएं समीचीन रहता ही है। यह साधारण रूप में देखने को मिलता है कि जिनके पास वस्तुएं उपजती हैं, उन उन वस्तुओं का तृप्ति मानव को मिलता ही आया है।

तृप्ति का स्रोत संभावना और स्थिति को और प्रकार से देखा गया है कि प्रत्येक मानव में जीवन शक्तियाँ अक्षय है, क्योंकि आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा और प्रमाण को कितना भी परावर्तित करें और परावर्तन

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