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शक्ल ही समृद्धि के स्थान पर वन-खनिज की रिक्तता के रूप में देखा गया। यह केवल सापेक्षता विधि को अपनाने का फल ही है। यह भी मानव कुल को बोध हो गया होगा कि सापेक्षता विधि से कोई शुभ होने वाला नहीं है। सापेक्षता विधि से बड़े-छोटे ज्यादा-कम की दूरियाँ बढ़ते ही जाना है। यह मानव कुल के लिए स्वीकार्य नहीं है। इसीलिए संतुष्टि बिन्दु की आवश्यकता है। इसका संतुष्टि बिन्दु सर्वमानव में एक ही स्वरूप में विद्यमान है। यह है जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना। यह ज्ञान, विज्ञान, विवेकपूर्ण विधि से अभिव्यक्ति संप्रेषणा प्रकाशन सूत्र बन जाते हैं जिससे मानव सहज रूप में किए जाने वाले कायिक, वाचिक, मानसिक; कृत, कारित, अनुमोदित और जागृत, स्वप्न, सुसुप्ति में भी समानता स्पष्ट हो जाती है।

जीवन सोता नहीं है, अपितु सतत कार्यरत रहता ही है। जीवन सहज अक्षय कार्य में से आंशिक कार्य ही शरीर के द्वारा प्रमाणित हो पाता है। जीवन जागृत होने के उपरांत भी जागृत, स्वप्न, सुसुप्ति अवस्थाओं में शरीर को जीवंत बनाए रखते हुए शरीर के दृष्टा पद में कार्यरत रहता ही है। इसमें जागृति के अनंतर शरीर को जीवन समझने वाला भ्रम दूर होता है। शरीर व्यवहार और अस्तित्व में दृष्टा पद स्वयं अनुभव सहज वैभव है। दृष्टा पद ही पूर्णता का द्योतक यही परंपरा से प्रमाण है। पूर्णता के अनंतर उसकी निरंतरता होना ही प्रमाण, महिमा है। इस विधि से मानव परंपरा जागृत होने के उपरांत ही मानव कुल में भाग लेने वाले हर जीवन का अपेक्षा जो शैशवकाल में ही सर्वेक्षित हो पाता है, उसका भरपाई नित्य वैभव के रूप में सम्पन्न होना पाया जाता है। इससे हम यह निष्कर्ष को पाते हैं कि शिशुकालीन अपेक्षाएँ, शोध-कार्य प्रवृत्ति, कार्यप्रणाली के शोध के लिए प्रेरक होता है। दूसरा, मानव कुल में व्याप्त कुण्ठा यथा द्रोह-विद्रोह-शोषण और युद्ध साथ ही द्वेष से ग्रसित परिवार, समुदाय अपने त्रासदी जागृति महिमावश भ्रम मुक्ति और शोध प्रवृत्ति की आवश्यकता को इंगित करता है। तीसरा, यह धरती का शक्ल सूरत ही बदल जाना, पर्यावरण में प्रदूषण अपने पराकाष्ठा तक पहुँचना पुन: प्रचलित सूझबूझ के स्थान पर (जिससे यह घटनाएँ हुईं) विकल्पात्मक सूझबूझ के शोध की आवश्यकता को स्पष्ट करता है।

अभी तक आर्थिक कार्यक्रमों को सभी समुदाय परंपराएँ झेलते हुए सदियों-युगों को बिताया है। प्रधानत: आर्थिक कार्यक्रम के आधार पर ही प्रदूषण और द्रोह-विद्रोह-शोषण-युद्ध स्थापित होते हुए आया है। इसके साथ अर्थात् आर्थिक मजबूती और कमजोरी (ज्यादा-कम) के आधार पर नस्ल, रंग, संप्रदायों का भी पुट लगाकर जिसको संस्कृति का नाम देते हुए परंपराएँ आर्थिक रूप में ऊंचाई को पाने की होड़ में ही चलता आया। इसी में वर्ग संघर्ष की अनिवार्यता को स्वीकारना हुआ। फलस्वरूप विभिन्न समुदायों ने अपने-अपने ढंग से विशेषकर युद्ध के आधार पर ही राज्य का नाम देने में बाध्य हुए। इस धरती में अधिकांश संख्या में मानव आर्थिक मजबूतियों पर संस्कृति को पहचानने की कोशिश की। इसी बीच एक सभ्यता को

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