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को देखा गया। जैसे गेहूँ को मोटा दाना बना दिया। पतले दाने के स्थान पर दाना मोटा तो हो गया, एक-एक दाने में जो पुष्टि तत्व नैसर्गिक विधि से प्राप्त था वह उतना ही मात्रा में विद्यमान रहता हुआ देखने को मिला। इन प्रयासों में विभिन्न प्रजाति के पराग सींचनों, रासायनिक उर्वरक विधियों, कृत्रिम पराग विधियों को भी अपनाकर स्तुषी संस्कार को स्थापित किये।

वैज्ञानिक युग के पहले जितने भी प्रजाति की अन्नोपज स्थापित हुई वे सब नैसर्गिक, भौगोलिक और जलवायु के आधार पर विकसित हुई। जितने भी अन्न प्रजातियों को मानव ने पहचाना है उन-उन भौगोलिक परिस्थितियों में अपने मूल रूप में प्रकृति प्रदत्त रहा। जैसे - जंगली धान को अनेक प्रयोगों सहित ही घरौआ बना पाया। आज भी मोटे-पतले जंगली धान प्रचलित हैं। इसी प्रकार अन्य अनाज तैलीय रूप को पहचानने के उपरान्त ही परिवार और ग्राम परंपरा में लाकर अभ्यस्त हो चुके थे। जो प्राकृतिक रूप में धान का पौधा मिलता है उसका संग्रहण, सहज न होने की स्थिति को झेलता हुआ आदमी उसे संग्रहण योग्य बनाने के कार्य को जैसे ही बाली में एक-एक दाना परिपक्व होने की स्थिति में बाली से गिर जाना देखा जाता है। जबकि घरेलू परंपरा में जो शामिल हो चुके हैं ये सब बाली को सम्पूर्ण दाना पकते तक, सुखते तक रहना, कोई प्रजाति का धान पकते तक रहना देखा जाता है। इसी क्रम में कृषक अपने ज्ञान-विवेक का प्रयोग करते तक सभी प्रकार के अनाजों का परंपरा बनाये रखा। यह परंपरा एक दूसरे को अंतरित होने में किसी भी प्रकार की दुराव-छुपाव नहीं रहा। इसका लोकव्यापीकरण करने में वंचना (इंटेलेक्चुअल प्रापर्टी राइट - बौद्धिक सम्पदा कानून) की प्रवृत्ति नहीं रही। आदि काल से भी जो ज्ञान-विवेक तकनीकि को सदा-सदा ही परंपरा में स्थापित करने का प्रयास बना ही रहा। यही लोकव्यापीकरण प्रवृत्ति को प्रमाणित करता है।

अभी जैसे ही अत्याधुनिक और जटिल विधियों से बीज-गुणन प्रक्रिया सम्पन्न करने का एकाधिकार कार्यक्रम के अनुसार कानून बनाने तक की प्रवृत्ति विज्ञान मानस में देखने को मिली। इस प्रवृत्ति का अनुमोदन पृथ्वी सम्मेलन, विश्व बैंक के साथ में सम्पन्न होता गया किंवा इनके अनुमोदन सहित प्रस्तावित होता गया। या इनको विदित ही है। इसमें दो विपदायें हैं। ये विपदायें सर्वाधिक कृषि कार्य करने वालों के लिये है। यदि हम तादात के रूप में गेहूँ, धान, मोटे फल और ज्यादा फल के आग्रह में आना अधिकांश लोगों में संभव है। इसी स्त्रोत को देखते हुए बीज-गुणन कार्यों में विशेषाधिकार, उनकी कानूनी सुरक्षा, उनके लिये प्रयास किसी देश की स्वीकृति, किसी देश की अस्वीकृति इस वर्तमान में देखा गया। यह वर्तमान 20वीं शताब्दी के दसवें दशक का मध्य भाग है। बीज जो विशेष प्रयासों, प्रक्रियों से प्राप्त किया रहता है वह प्राकृतिक रूप में हर देश, धरती में पुनः उत्पादन के उपरान्त पहले बीज के समान नहीं हो पाता। इसका कारण वह

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