और उसकी निरंतरता होना पाया जाता है। तृप्ति के स्रोत में न्याय, धर्म, सत्य को और अतृप्ति के स्रोत में प्रिय, हित, लाभ को देखा जा सकता है अथवा मिलता है।
तृप्ति-अतृप्ति का कार्य रूप मानव में ही अध्ययन गम्य है। इसमें मुख्य बिन्दु हर व्यक्ति में तृप्ति का कार्य स्रोत होना ही जागृति है। ऐसा स्रोत जानने-मानने के रूप में देखा गया। यह हर व्यक्ति में निहित है। मूलत: जीवन सहज कार्य है। शरीर के द्वारा मानव परंपरा में यह सत्यापित हो पाता है। यह मुख्य बिन्दु पर मानव का जागृति ही सार्वभौमता का आधार है। सार्वभौमता मानव के अवगाहन, अवगाहन का तात्पर्य सर्वतोमुखी विधाओं में प्रमाणित करने की अर्हता से है। यद्यपि अवगाहन का परिभाषा आवश्यकता अनिवार्यता के रूप में ग्रहण किया हुआ को ध्वनित करता है। ऐसा आवश्यकता अनिवार्यता पूर्वक ग्रहण किया हुआ स्वाभाविक रूप में अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन योग्य होते ही हैं। क्योंकि जो जिसके पास रहता है, वह उसको बांटता है। मानव में होने वाले बंटन कार्य का तात्पर्य अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन ही है। इन्हीं तीनों प्रक्रियाओं में तन, मन (जीवन शक्तियाँ) और धन का सहज प्रवाह देखने को मिलता है। इस विधि से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव अपने सार्वभौमता को स्थापित करने का अधिकार स्वत्व, स्वतंत्रता, न्याय, धर्म, सत्यपूर्ण विधियों से होना स्पष्ट हुआ। यह अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन और सहअस्तित्व विधि से ही प्रमाणित होना पाया जाता है। यही समग्रतावादी विश्व दृष्टिकोण और समग्र व्यवस्थावादी कार्यप्रणाली को जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने का सहज स्वरूप है। यही जागृति का द्योतक है। ऐसी जागृति मानव परंपरा में ही स्थापित, जीवित रहने की आवश्यकता और इसकी नित्य संभावना समीचीन रहता ही है। क्योंकि मानव अस्तित्व में होना सहज है। अस्तित्व नित्य वर्तमान होना सहज है।
मानव में जागृति की प्यास, आवश्यकता प्रकारांतर से बनी ही है। यह प्रकारांतर से हर मानव में निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण से इंगित होता है। शिशु काल से ही न्याय की अपेक्षा, सही कार्य-व्यवहार करने की इच्छा, सत्य बोलने की प्रवृत्तियाँ देखने को मिलता है। परंपरा का ही दमखम है अथवा गरिमा है कि इन आशाओं को सार्थक बना देना। अभी तक सापेक्षता विधियों से चलकर न तो शैशवकालीन आशयों पर ध्यान ही दे पाया। इन आशयों को देखने के विपरीत अबोध और अज्ञानी के आधारों पर सापेक्षवादी निर्णयों अथवा रहस्यमयी आस्थाओं को लादने वाली कार्यप्रणाली को अपनाया। फलस्वरूप जागृति की आवश्यकता बलवती अवश्य हुई। यही इसका उपकार माना जा सकता है। प्रमाण के रूप में कोई उपलब्धियाँ न होकर रिक्तता अथवा कुंठा ग्रसित हो गया। मानव कुल में द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्ध के रूप में पनपता हुआ इस कुंठा को देखा गया। ऐसी कुण्ठा ग्रसित परम्परा के चलते इस धरती का