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जटिलतम संस्कार हर देश, धरती में सुलभ नहीं रहता है। इसमें यह भी देखा गया बीज गुणन का मूल रूप में जो बीज था और आरोपित संस्कार था वह बीज में स्वीकृत न रहकर क्षणिक रूप में कार्य करने योग्य कृत्रिम संस्कार से बनी हुई थी। फलस्वरूप हर बीजों में समायी हुई स्तुषी (अंकुर का मूल रूप) जिस पुष्टि का संग्रहण विधि उसी स्तुषी में संकेतित रहता ही है। इसी के साथ रचना स्वरूप का भी संकेत रहना पाया जाता है। इसका साक्ष्य ही है एक धान का बीज नैसर्गिकता को पाकर अर्थात् धरती, जल, वायु और उष्मा को पाकर धरती के उर्वरकता के अनुपात में पौधे की रचना, एक बीज अनेक बीज होने की प्रवृत्ति को प्रमाणित कर देता है। उसमें मूलत: पुष्टि, संग्रहण कार्य की समानता ही बीजों में स्थिरता का आधार होना देखा जाता है। पुष्टि संग्रहण का मूल तत्व रसायन द्रव्य है जो संयोग विधि से रसायन द्रव्य अपने आप से उत्कर्षित होना पाया जाता है। रसायन द्रव्य का मूल वस्तु भौतिक पदार्थ है। भौतिक पदार्थों का मूल रूप परमाणु और उसमें निहित परमाणु अंशों के संख्याओं में प्रभेद ही है। अस्तु, रसायन द्रव्यों का संगीतीकरण अर्थात् एक रसायनिक अणु से दूसरे रसायनिक अणु का नैसर्गिक और पूरक प्रवृत्ति विधि से एक दूसरे के साथ जुड़कर कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। हर पौधे के साथ जल, वायु, उष्मा और धरती संतुलन क्रियाकलाप में धरती में अर्थात् भौतिक द्रव्य में रसायनिक क्रियाकलाप की प्रवृत्ति बनती ही रहती है और हर पौधा पेड़ मिट्टी में मिलकर धरती की उर्वरकता और उसकी समृद्धि कार्य में पूरक होना भी दृष्टव्य है। इस विधि से हर बीजों में पुष्टि संग्रहण और रचना विधि संकेत सम्पन्न स्तुषी का संस्कार तभी स्थिर हो पाता है। अर्थात् परम्परा के रूप में हो पाता है कि आरोपित पुष्टि संग्रहण न होकर, स्वीकृत पुष्टि संग्रहण संकेत युक्त होना अति आवश्यक है।

अभी तक जितने भी प्रकार से जटिल-जटिलतम प्रणालियों से जितने भी बीजगुणन कार्य वैज्ञानिक अनुसंधानशालाओं में सम्पन्न किया गया है, यह इस धरती पर प्रचलित परंपरा के रूप में स्थापित होना संभव नहीं हो पायी। इसमें व्यापारिक अनुशंसा और प्रवृत्ति ही इसका मूल कारण होना पाया जाता है।

अनुसंधान और लोकव्यापीकरण का संबंध अविभाज्य है। इस सहज धारा में विरोध, अवरोध और प्रतिरोधता ही विशेषज्ञता और बौद्धिक सम्पदा संरक्षण का गवाही है। उसके मूल तत्व में जीवन, उसकी प्रवृत्ति, उसी तृप्ति संबंध में प्रत्येक व्यक्ति अपने में मूल्यांकित करना एक आवश्यकता है। कम से कम विशेषज्ञता से आभूषित होने वाले, सम्पन्न होने वाले, घोषणा करने वाले व्यक्ति को यह मूल्यांकन अनिवार्य हैं। इसके अभाव में विशेषज्ञता व्यापार की वेदी में कत्लेआम होना ही है। क्योंकि व्यापार कम देकर ज्यादा लेने के पक्ष में है। यही लाभ प्रवृत्ति और संग्रह का द्योतक है। जीवन शक्तियों को किसी भी घर में, घाट में, तिजोरी में, बैंक में, अधिकोषों में, राज कोषों में, विश्वकोषों में जमा नहीं किया जा सकता। इसी तथ्य के आधार पर

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