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बौद्धिक आरक्षण की निरर्थकता समझ में आती है। क्योंकि जीवन शक्ति और बल सतत ही अक्षय है। यह नित्य स्थिति और गति सम्पन्न है। स्थिति में बल, गति में शक्ति अथवा गति को शक्ति कहा जाता है। स्थिति गति का अविभाज्यता जीवन में चरितार्थ होना पाया जाता है। ऐसी शक्तियों को, बलों को जीवन ही जीवन से, जीवन के लिए जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना संभव है। यह हर मानव में निहित वर्तमान क्रियाकलाप है।

मानव में मानवीयता ही मौलिकता, श्रेष्ठ जिन्दगी अथवा बेहतरीन जिन्दगी का सूत्र है। मानव में मानवीयता पूर्ण परंपरा ही सर्वतोमुखी समाधान और व्यवस्था के रूप में होता है। इसी क्रम में आवर्तनशील अर्थव्यवस्था एक आयाम है जो स्वयं समाधान और उसकी निरंतरता का स्वरूप है। आवर्तनशील व्यवस्था में मानव सहज अपेक्षा रूपी अथवा समाधानपूर्ण अपेक्षा सहित समृद्धि सभी परिवार के लिए सुलभ हो जाता है। इसकी निरंतरता के लिए नैसर्गिकता के संतुलन को बनाए रखना अत्यावश्यक विधि बन जाती है। मानव अपने मौलिकता के साथ ही अर्थात् मानवीयता के साथ ही व्यवस्था को पहचानना-निर्वाह करना सहज हो जाता है। इसका कारण स्वयं व्यवस्था के रूप में जीना एक आवश्यकता बनती है। इसे सफल बनाने के लिए व्यवस्था के रूप में जीने देना अनिवार्यता होना पाया जाता है। इसी क्रम में मानव जीने देने और जीने का कार्यप्रणाली सफल होता है। यही विधि सर्वसुख प्रणाली को प्रमाणित करता है। सर्वसुख मानव मात्र से है। सर्वमानव सुखी रहना चाहता ही है। इसे सफल बनाना ही, चरितार्थ रूप देना ही सर्वसुखवाद है। यही सर्वतोमुखी समाधान, अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का ताना-बाना है। इसके मूल में प्रत्येक मानव में जागृति ही प्रधान सूत्र है। जागृति सहज सूत्र स्वयं में जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान सहज स्वरूप है।

पूरकता स्वयं उद्देश्यपूर्ण अर्थात् जागृति सहज विधि से सहअस्तित्व को प्रकाशित करना ही है। यह प्रत्येक प्राण कोशाओं से रचित रचनाओं में अथवा अणु रचित रचनाओं में दृष्टव्य है। इसका प्रमाण यही है कि हर अणु में अनेक परमाणु और हरेक रचना में अनेकानेक अणुओं का होना और इसका निरंतर विद्यमानता का होना। इसी विधि से इस धरती में निहित सम्पूर्ण वस्तुओं को देखा जाना स्पष्ट है। देखने वाली इकाई मानव ही होना स्पष्ट है। भ्रमित मानव में देखने का गुण प्रिय, हित, लाभ; जागृत मानव में न्याय, धर्म और सत्य पूर्ण विधाओं के रूप में कार्यरत होना अध्ययन गम्य है। प्रिय, हित, लाभात्मक दृष्टियाँ क्रम से इंद्रिय सापेक्ष, शरीर (स्वास्थ्य) सापेक्ष, वस्तु (संग्रह) सापेक्ष होना सर्वविदित है। न्याय मूल्य मूलक व्यवहार प्रमाण, धर्म सार्वभौम व्यवस्था प्रमाण और सत्य जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान के रूप में आवर्तनशील है। प्रमाण सदा ही पूर्णता और उसकी निरंतरता उस के फलन रूप में तृप्ति

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