भ्रम है। नासमझी से जीने के लिए परंपरा हमको मजबूर करती है। उसका प्रमाण है कि कामोन्मादी मनोविज्ञान, भोगोन्मादी समाजशास्त्र और लाभोन्मादी अर्थशास्त्र। इसके बीच में चलता हुआ आदमी अपने बच्चे को बहुत अच्छा बने, श्रेष्ठ बने, संस्कारी बने, सुखद बने, सुशील बने ऐसा आशीर्वाद करते हैं। अब इसका-उसका तालमेल कहाँ है। बच्चों को हम जो सिखाते हैं, पढ़ाते हैं उसका और जो आशीष देते हैं उसका तालमेल कहाँ है।
दूसरा प्रश्न राष्ट्रीय चरित्र उसका भी उत्तर मिल गया। क्या मिल गया? अस्तित्व में हर एक अपने त्व सहित व्यवस्था में है। समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है। ये चीज मानव में भी आने के लिए रास्ता मिल गया। मानव की परिभाषा मिल गयी। “मानवता” जागृत मानव का कार्य-व्यवहार का स्वरूप है। उस कार्य-व्यवहार को हम सूत्रित करते हैं, व्यवहार में व्याख्यायित करते हैं यही समाजशास्त्र या संविधान कहलाता है। मानव के आचरण को बोध कराना ही समाजशास्त्र का मूल वस्तु है ये हमको समझ में आ गया। इस ढंग से दोनों मुद्दों पर हमको उत्तर मिल गया कि मानवीय आचार संहिता होगी संविधान से। संविधान के रूप में हम राष्ट्रीय चरित्र को पहचान सकते हैं। इसके बाद हम भ्रममुक्त हो जाएं तो मानव की तरह जिया जाए यही भ्रम से मुक्ति है, मोक्ष है। ना बर्फ को पत्थर बनाना, ना पत्थर को पानी बनाना, ना किसी को रूढ़िगत आशीर्वाद देना है ना कोई चमत्कार करना है ना कोई सिद्धि दिखानी है। अस्तित्व में न कोई सिद्धि है न कोई चमत्कार है इसको हम सटीकता से देखा है। शाप और अनुग्रह के बीच कराहता हुआ आदमी आज भी करोड़ों-करोड़ों हैं। तो इसका एक ही उत्तर है जिस क्षण हम आप जागृति की दिशा में एक भी कदम बढ़ाते हैं उसी मुहूर्त में सम्पूर्ण शाप, ताप, पाप तीनों ध्वस्त हो जाता है। इनका कोई कलंक नहीं रह जाता। वह कैसे इसका उत्तर गणितीय विधि से इस प्रकार दिया। जैसे हम गणित को हजार बार गलत किए रहते हैं किन्तु जब सही करना आ जाता है तो जीवन भर के लिए सही हो जाता है। जब तक गलती करते रहते हैं तब तक एक बार जो गलती करते हैं दुबारा वो गलती करते ही नहीं, दूसरी गलती ही करते हैं। उसको भी हम घटना के रूप में देख सकते हैं यदि करोड़ बच्चों के लिए गणित का प्रश्न दिया जाए; सही उत्तर देते हैं तो सबका एक ही होता है। गलत होते हैं तो करोड़ होता है। हर सामान्य व्यक्ति भी इसका सर्वेक्षण कर सकता है। इस ढंग से हम एक और सूत्र पा गये। हम मानव सही में एक हैं गलती में अनेक।
जब अस्तित्व को देखा; महिमा सम्पन्न एक सूत्र हमको मिला। अस्तित्व में दो ही प्रजाति की वस्तुएँ हैं। पहली एक-एक के रूप में जिन्हें गिन सकते हैं जिसको प्रकृति कहा जा सकता है। दूसरा जो सर्वत्र फैला हुआ है इसको हर व्यक्ति एक क्षण में समझ सकता है। प्रत्येक एक-एक वस्तु इस दूसरी वस्तु में भीगा