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समझा नहीं है, शास्त्र को समझा नहीं है। यह अपने आप में स्वयंभू के रूप में हर रूढ़ियों को हर बात को, नकारता है यह कहाँ तक ठीक है? इस मुद्दे पर चिंता करने लगे। यह हमारे लिए दूसरे प्रश्न का कारण बना। मैं अब क्या करता? अब कोई दूसरा रास्ता नहीं रहा तो मैं आर्ष ग्रन्थों के अनुसार वेदान्त को समझा। जिन्हें वे सर्वोपरि मानते थे।

पहला भूमि है वेदान्त, अर्थात माने गये वैदिक विचार का कर्म। वैदिक विचार के अनुसार कर्म उस चीज़ को मानते हैं जिससे स्वर्ग मिलता है बाकी सबको और कुछ कहते हैं। उपासना उसको कहते हैं जिसमें इन्द्र या अन्य देवी देवता बनना हो, इसके लिए जो उपक्रम है उसे वेद-उपासना कहते हैं। तीसरे शीर्ष भाग में यह कहते हैं कि ज्ञान ही सर्वोपरि है। ज्ञान क्या है? पूछा तो ब्रह्मज्ञान। ब्रह्म क्या चीज है? पूछा तो तुम समझोगे नहीं। समझेंगे नहीं तो हम कैसे पार पायेंगे? बुजुर्गों ने जो कहा है, ‘करो, ना करो’ इसी विधि से पार पायेंगे। क्या करें? क्या होगा? यह तुमको समाधि में मिलेगा। समाधि से सारे प्रश्नों का उत्तर मिलता है ये आश्वासन हमको बुजुर्गों से मिला। इस आधार पर मैंने अपने मन को सुदृढ़ किया कि कुछ भी हो एक बार समाधि की स्थिति को देखना ही है और कोई बात बनती ही नहीं है। ना हमारा कोई दावा का मतलब है, ना करने का भी कोई मतलब नहीं है, करो का भी कोई मतलब नहीं है। एक बार हमें अपने प्रश्नों का उत्तर मिलना चाहिए। वेदान्त को भली प्रकार सुनने के बाद पहले तो ये प्रश्न बना :- बंधन और मोक्ष क्या है मायावश हम बंधन में रहते हैं ऐसा वे कहते हैं। मोक्ष माने आत्मा का ब्रह्म में विलय होने को कहते हैं। आत्मा कहाँ से आया? तो बोलते हैं- जीवों के हृदय में ब्रह्म स्वयं आत्मा के रूप में निवास करता है। जब जीव मुक्त होने के लिए अर्थात् आवागमन से यानि स्वर्ग-नरक से मुक्त होने के लिए आत्मा का ब्रह्म में विलय होना ही है, तो यह ब्रह्म जीवों के हृदय में आत्मा के रूप में क्यों बैठ गया? पहले जब जीव हुआ था उस समय में उनमें कोई आत्मा नहीं था फिर ब्रह्म को उसके अंदर घुसने की क्या जरूरत थी? ऐसा हमारा वितण्डावाद जैसा हुआ। क्योंकि हम बुजुर्गों की ध्वनि से ध्वनि नहीं मिलाया इसलिये हमें वितण्डावादी नाम दिया। हमने कहा आप लोग जो समझते हैं वह ठीक है किन्तु इसका उत्तर तो आप प्रस्तुत करोगे। परन्तु इन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला। उसके बाद यही कहा गया कि इसका उत्तर भी तुम्हें समाधि में ही मिलेगा। अब क्या करें? समाधि के लिये तत्पर होने के लिये हम शनैः-शनैः तैयार हुये। हमारा मन धीरे-धीरे बनता रहा। इस तरह सन् 1944 से शुरूआत हुई और सन् 1946 तक हम समाधि के लिये तत्पर हो गये। उस समय और एक स्थिति बनी देश में स्वराज्य आयेगा इसकी संभावना बलवती हुई। सन् 1947 की बात है जैसा कि हम लोग आशा करते थे सत्ता का हस्तान्तरण हुआ। उसमें भी बहुत बड़े चिंतनशील थे, बुजुर्ग थे, विचारशील थे उनकी बातों को सुनते रहे और उनमें भी व्यतिरेक आई सफलता के दिन तक। उसमें भी हम पीड़ित हुये। उसके बाद और एक आशा लगी अब हमारा एक संविधान बनेगा। उसमें शायद सही

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