मानव के मूल्यांकन की व्यवस्था रहेगी। मैं अपने तरफ से, स्वयं स्फूर्त विधि से सोचता रहा कि संविधान से कहीं न कहीं मार्गदर्शन मिलेगा।
संविधान की जब रचना हुई तब इस संबंध में अखबारों में जो लेखा-जोखा आता रहा उसको मैं ध्यान से सुनता रहा और समझने की कोशिश करता रहा। सन् 1950 तक की सारी बातें सुनकर हमारे मन में आया कि इस संविधान के तले सही मानव का मूल्यांकन नहीं हो सकता। इसका आधार यह बना कि सही मानव का कोई चरित्र ही इसमें व्याख्यायित नहीं है जिसको हम राष्ट्रीय चरित्र कह सकें। अब क्या किया जाये? पहले से संकट था ही, वेदांत और समाधि, समाधि में ही सब उत्तर मिलना है। इस प्रश्न को भी उसी से जोड़ लिया। समाधि में ही इसका भी उत्तर मिलेगा जिसमें किसी बड़े बुजुर्ग के साथ या विद्वानों के साथ तर्क करने की आवश्यकता नहीं है। मिलता होगा तो सबका जवाब मिलेगा, नहीं मिलता है तो यह शरीर यात्रा बोध के लिए अर्पित है ऐसा हम अपने में निर्णय लिया। इसके लिए एक व्यक्ति और तैयार हो गयी वह है मेरी धर्मपत्नी। हम अमरकंटक को एक ऐसी स्थली, प्राण-स्थली, नर्मदा जी का उद्गम स्थली है ये सब सुनते ही थे। उस पावन विचार के आधार पर क्यों न वहीं जाकर यह अंतिम प्रयत्न किया जाए ऐसा सोचकर हम अमरकंटक आ गये। यहाँ आकर हम आगम तंत्रोपासना विधि से साधना करने लगे। इस विधि में समाधि का एक तरीका बताया गया है, जिसमें सारे देवी देवताओं को अपने ही शरीर के हर भाग में देखने की बात है। अपने ही कल्पना से देखने की बात है। उनकी पूजा पाठ करने की बात है। ऐसे ही अपने शरीर के अंग-प्रत्यंगों में जो कुछ भी कल्पना करते हैं ये देवता है वो देवता है इस क्रिया का नाम दिया है “न्यास”। इसके मूल में यह सूत्र दिया है ‘देवोभूत्वा देवान् यजेत्’ अर्थात् तुम स्वयं देवरूप होकर देवताओं की अराधना करो। ये बात मुझको बतायी गयी थी। उसके साथ उसी प्रकार से ईमानदारी से करने के लिए हम तत्पर हुए। उसमें जैसा बन पड़ता था वैसा करता रहा। करते-करते एक दिन ऐसा आया कि हम देवी देवताओं से, के सान्निध्य से मुक्त हो गये। “मैं हूँ” इसका बोध था। हमारे पास और कोई विचार नहीं था।
हमको कोई चीज पाना है इसका कोई विचार नहीं था, हमारे पास कोई चीज है यह भी विचार नहीं था, हमको कुछ करना है यह भी विचार नहीं था। एक नयी बात, छोटी सी बात यह घटना हुई। इस घटना होने के कुछ घंटों तक यही स्थिति रही। उसके बाद जैसे ही हमें शरीर का बोध हुआ, समय का बोध हुआ। तब हमको पता चला कि इन तीनों का हमें बोध नहीं रहा था। हमारे पास विचार ही नहीं था। ऐसा मुझको मुझमें विश्वास हुआ। ये होने के बाद मैं सोचने लगा कि मुझे समाधि की स्थिति आ गयी। उस समाधि की स्थिति को हर दिन दोहराता रहा। कई घंटों तक दोहराता रहा और प्रतीक्षा करता रहा हमारे प्रश्नों का उत्तर