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जितना भी जड़ संसार है जिसको हम पदार्थावस्था, प्राणावस्था कहते हैं वह ठोस, तरल और विरल रूप है और जितनी भी प्राणकोशाओं से बनी हुई रचनाएं है उनके मूल में बहुत सारे रस-रसायनों का संयोग होना अनुभव हुआ है। मानव जाति को और भी जो करना है, करते रहेंगे। तो इनसे रचित सभी वस्तुओं का जो संयोग से ही कुल मिलाकर के शरीर रचना की बात देखी। भौतिक रासायनिक वस्तुओं से ही ये जीव-जन्तु और मानव शरीर भी बनता है। तो इन जीव-जन्तु और मानव शरीरों में जो अंतर मैंने देखा कि मानव शरीर रचना में ही मेधस तंत्र पूर्ण समृद्ध हो पाता है। समृद्ध होने का मतलब यह है कि जीवन बहुमुखी विधि से अपने को प्रमाणित करने योग्य मेधस तंत्र बना रहता है। इसको मैंने सटीक देखा है।

ये सब देखने के बाद मुझे लगा जीव कोटि अपनी व्यवस्था में है, व्याख्यायित है, अपने में परिभाषित है। वैसे ही मानव भी त्व सहित व्यवस्था के रूप में परिभाषित है और व्याख्यायित है और इस ढंग से जीने पर आदमी को सुखी होना बन जाता है ये भी हमको पता लगा। इसी के साथ-साथ वे उत्तर भी मिल गये। वाकई में मोक्ष क्या है? बंधन क्या है? जिस बात के लिए हम चले थे उसका उत्तर इसी जगह में मिल गया। कैसा मिल गया? जीवन हर मानव शरीर को संचालित करता है; क्या प्रमाणित करना है? पहले बताया सुख को प्रमाणित करना है। सुख को प्रमाणित करने के लिए क्या होना पड़ता है? समझदार होना पड़ता है। मानव समझकर व्यवस्था को प्रमाणित करेगा और सुख को प्रमाणित करेगा और दूसरी विधि से कर नहीं पायेगा। मैं स्वयं साधना करता रहा सब लोग कहते रहे बड़े नियम से, बड़े संयम से, बड़ा सटीक रहता है। आदमी सब उमड़-उमड़ करके हमको देखने आते थे किन्तु हम गवाही दे रहा हूँ साधना के प्रारंभिक स्थिति में हमारी मानसिकता में कोई भी संयम नहीं रहा। जब तक हम समाधिस्थ नहीं हुए तब तक हममें कोई मानसिक संयम नहीं रहा। हमारे में इतना ही बात रही कि हमें साधना करना है और कोई ऊटपटांग कार्य हम नहीं कर सकते। किन्तु ऊटपटांग बात हमारे मन में ना उपजे ऐसा कोई बात नहीं थी। इस आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ जब तक आदमी समाधिस्थ नहीं हो जाता तब तक ऊटपटांग विचार ना आए ऐसा कोई कायदा अस्तित्व में नहीं है। मानव स्वयं नहीं चाहता कि ऊटपटांग बातें हो, मन में आवें; साधना करने वाला तो कोई चाहता ही नहीं। मैं भी नहीं चाहता रहा फिर भी होता रहा। यही संकट सभी साधकों के सामने आता है। इसे साधक जब तक झेल पाता, झेल पाता है जब झेल नहीं पाता, झेल नहीं पाता है यही मैं कह सकता हूँ यही इसकी समीक्षा है।

अब जब इस मुद्दे का उत्तर मिल गया क्या चीज है बंधन और मोक्ष। बंधन है नासमझी, भ्रम। नासमझी क्या है हम जीव जानवरों जैसा जीएं। जानवर के क्रियाकलापों को मानव के लिए प्रमाण कैसे मान लें। इसी को प्रमाण मान लें उसके अनुरूप यदि मानव जीने के लिए प्रवृत्त होते हैं तो यही मानव जाति के लिए

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