अस्तित्व को समझने का मूल मुद्दा इतना ही है कि अस्तित्व सत्ता में संपृक्त प्रकृति ही है। ये एक दूसरे के साथ ओत-प्रोत और सदा-सदा के लिए अविभाज्य, निरंतर विद्यमान, वर्तमान होना पाया जाता है। प्रकृति को व्यापक वस्तु से अलग करने की कोई विधि नहीं है, अलग करने का कोई प्रयोजन नहीं है, अलग हो नहीं सकते। इस तरह अस्तित्व में जो नहीं है उसकी हम कल्पना करके भी कुछ नहीं कर पायेंगे। अस्तित्व में जो है उसी को समझने की बात है। प्रमाणित करने की बात है। अस्तित्व ही चार अवस्थाओं में व्यक्त है।
यदि समझदारी को हम प्रमाणित नहीं कर पायेंगे तो ना हम परिवार व्यवस्था ना समाज व्यवस्था में जी पायेंगे। हर जगह में हम परेशान होते ही हैं। सात सौ करोड़ मानव का इस धरती पर हो गया लेकिन हमारा व्यवस्था में जीना अभी बना नहीं। संख्या बढ़ने या घटने से आदमी समझ गया हो ऐसा भी कुछ नहीं है। मानव परंपरा में क्या प्रयोजन है : समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सहज प्रमाण। सहअस्तित्व विधि से हम पूरक विधि से जी पाते हैं। अभय विधि से वर्तमान में विश्वास करते हैं। समृद्धि विधि से हम परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर पाते हैं। समाधान पूर्वक ही न्यायपूर्वक जी पाते हैं।
मानव परंपरा में अभी तक जो प्रयत्न किया आदर्शवादी विधि से और भौतिकवादी विधि से हम दोनों विधि से समझदारी को पाये नहीं। उसका मूल कारण है अस्तित्व सहअस्तित्व के रूप में समझ में नहीं आना। सहअस्तित्व में जीवन व जीवन जागृति को समझने में भूल हो गयी फलस्वरूप जीवन एवम् समझदारी की परंपरा बनी नहीं। जब परंपरा बनी नहीं तो व्यवस्था में जीना कहाँ से आयेगा। समझदारी के अभाव में मानव, मानव के साथ न्यायपूर्वक और प्रकृति (जीव, वनस्पति, पदार्थ) के साथ नियमपूर्वक, संतुलित रूप से जीना बना नहीं। इसी के कारण अनुपम नैसर्गिकता को हनन करता रहा।
मानव को न्याय मिला नहीं। बड़े-बड़े न्यायालयों के न्यायाधीशों से पूछा गया तो उन्होंने कहा हम फैसला करते हैं न्याय नहीं करते। इस स्थिति में जब न्यायालय, न्याय को नहीं जानता है तो उसे न्यायालय कहना कितना सच होगा और उन्हीं न्यायालयों में कहा जाता है सच बोलो। अब कहाँ तक सच्चाई है न्यायालय में क्या सच्चाई को खोजा जाए। इसी तरह कार्यालय में कार्य क्या होता है? गलतियों को खोजना, अपराध को खोजना और उनको गलतियों और अपराध से रोकना। इसी काम के लिए सारे सरकारी तंत्र में कर्मचारी नियोजित हैं।
मानव जागृत होने के लिए मूल वस्तु ‘समझदारी’ है। हर मानव को यदि समझदारी पहुँच पाता है तो मानव न्यायपूर्वक जी सकेगा। न्यायपूर्वक जीने के साथ समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व अपने आप से आते हैं। बिना न्याय पूर्वक जिये समाधान आयेगा नहीं। इससे पता लगता है मानवीयता का जो रीढ़ है वह न्याय है।