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सुलभ हो जाती है। सर्वमानव के लिए इसकी आवश्यकता है। इसलिए समझदारी संपन्न मानव ही परंपरा को सही ढंग से आगे पीढ़ी को अर्पित कर स्वयं संतुष्ट हो सकता है आगे पीढ़ी संतुष्ट हो सकती है।

मानव संस्कारानुषंगी इकाई है। संस्कार समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी का संयुक्त रूप में वर्तमान ही होती है। चूंकि गलतियाँ किसी को स्वीकार नहीं है इसलिए गलतियाँ संस्कार होती नहीं है। गलतियों को कोई स्वीकारता नहीं है किन्तु फंसा रहता है। कोई आदमी चाहे हजार गलती किया हुआ हो किन्तु उसे वे गलतियाँ स्वीकृत नहीं है। चूंकि गलतियाँ किसी को स्वीकार नहीं है इसलिए उन्हें कोई आगे पीढ़ी को अर्पित नहीं करता, अतः नासमझी (गलतियों) की परम्परा नहीं बनती। तो इन तमाम गवाहियों के साथ यही निष्कर्ष निकलता है कि समझदारी ही परंपरा सहज स्त्रोत है। समझदारी के लिए ध्रुव बिन्दु है मानव चेतना रूपी समानता। समानता का ध्रुव है जीवन। जीवन में गठनपूर्णता और अक्षय बल, अक्षय शक्ति ये ही समानताएं है। मैं कितनी भी आशा, विचार, इच्छा करता हूँ मुझमें आशा, विचार, इच्छा करने की ताकत बनी ही रहती है। इस तरह से जीवन में अक्षय बल और शक्ति होने के लिए परिणामशीलता से मुक्त हुए बिना हो नहीं सकता ये तर्क विधि से जीवन की गठनपूर्णता को स्वीकारने की बात बनती है।

मुझमें जब समझदारी स्वीकार हो गयी इसको कैसे जाँचा जाए। इसको व्यवहार में, कार्य में, व्यवस्था में जाँचा जाता है। मैंने व्यवहार और कार्य में कई बार जाँचा, व्यवस्था के रूप में हम स्वयं में जीना समाधान-समृद्धि के रूप में स्पष्ट है। समग्र व्यवस्था अभी भी बनी नहीं है मानव परंपरा में। अखण्ड समाज व्यवस्था के रूप में जीने के बाद हमारे अनुभव में सहअस्तित्व में जो वस्तु जैसा है उसको वैसा ही समझने वाली बात का परम्परा रूप में प्रमाण ही है, अनुभव के लिए पुनः प्रमाण मिल जाता है। हमारा अनुभव बुलंद होता रहता है। इस ढंग से अनुभवमूलक विधि से जीने वाली बात आयी। इस तरह निष्कर्ष निकला मानव समझदारी पूर्वक अनुभवमूलक विधि से व्यवस्था में जीता है। जीवावस्था वंशानुषंगी विधि से, प्राणावस्था बीजानुषंगी विधि से और पदार्थावस्था परिणामानुषंगी विधि से, व्यवस्था में रहते हैं।

इस मुद्दे पर पहुँचे कि समझदारी निश्चित है यह विकसित चेतना सहित जीना ही है। समझदारी का धारक वाहक निश्चित है, इस कारण समझदारी का प्रमाण निश्चित है। समझदार जीवन ही होता है। समझता जीवन ही है समझदारी का प्रमाण मानव परंपरा में होता है क्योंकि मानव शरीर में ही समृद्ध पूर्ण मेधस की रचना पायी जाती है और किसी परंपरा (जीव) में समझदारी का प्रमाण मिलेगा नहीं। सहअस्तित्व में पूरकता, उदात्तिकरण, विकास क्रम, विकास और जागृति ये सभी चीज समायी है। इन सभी बिन्दुओं को समझने की जो विधि है वह मानव में ही समाहित है, क्षमता भी मानव में ही समाहित है।

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