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में गण्य होने का क्या आधार है? मानव जीव चेतना क्रम में जिसको समझा हुआ समझता है उसी ढंग से कार्य व्यवहार करता है। वह जाना नहीं रहता तब भी मानने की बात हर व्यक्ति में है और जीव चेतना में जीते हुए हम इसको जानते हैं ऐसा कहता है दावे के साथ जाना नहीं रहता माना रहता है लेकिन बोलते समय जानता हूँ कहता है, ये व्यतिरेक है ही क्योंकि जीव चेतना में जीते हुए सर्वशुभ के अर्थ में सत्यापित करना बनता नहीं। भ्रमित आदमी में यही व्यतिरेक है। 99% भ्रमित मानव शरीर को ही जीवन मान लिए हैं जिसके फलस्वरूप ही तमाम परेशानियाँ पैदा की है और परेशानियों से त्रस्त हुआ भी हैं, अब परेशानियों से मुक्ति पाने की इच्छा हुई है, उसी इच्छा के तहत यह कार्यक्रम है।

चारों अवस्था में से मानव ही समझे और समाधानित हुए बिना सुखी नहीं हो सकता। पदार्थावस्था परिणामानुषंगी विधि से नियंत्रित है। प्राणावस्था बीजानुषंगी विधि से नियंत्रित है। जीवावस्था, वंशानुषंगी विधि से नियंत्रित है। नियंत्रित रहने का प्रमाण ही है व्यवस्था में रहना। निश्चित आचरण में रहना। मानव को छोड़कर प्रकृति की हर इकाई अपने निश्चित आचरण में है। मानव में भी निश्चित आचरण की जरूरत है। मानव संस्कारानुषंगी विधि से नियंत्रित होना है। संस्कार क्या है? विकसित चेतना रूपी समझदारी है। समझदारी का प्रमाण है मानवीयता पूर्ण आचरण। जब मानव समझदार होता है तो व्यवस्था में जीता है और तब इसका आचरण मानवीयता पूर्ण होता है। जब व्यवस्था में नहीं जी पाता तो अमानवीय आचरण कहलाता है। अब मानवीय आचरण और अमानवीय आचरण का परिभाषा बनता है। इसके बाद हमको पता लगता है इसकी जरूरत है या इसकी जरूरत नहीं है। जिसकी जरूरत होती है उसकी ओर आदमी की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। इस तरह मानव के जागृत होने का रास्ता बना है। जीवन न पैदा होता है, न मरता है और शरीर रचित होता है और विरचित होता है। जीवन, जीवन सहज विधि से मानव शरीर को चलाना चाहता है। जीवन सहज विधि क्या है सुखी होने का समझ एवं कार्यक्रम। सारे पशु केवल जीने की आशा करते हैं वंशानुषंगी विधि से। जबकि मानव सुखपूर्वक जीना चाहता है किन्तु जब मानव वंशानुषंगी विधि से जीने जाता है तो परेशान होता है, इतनी ही बात है।

इसको अच्छे ढंग से हमको समझने की जरूरत है इसको अच्छे ढंग से प्रमाणित करने की जरूरत है। समझदारी ही प्रमाणित करने की वस्तु है। जब मैं आपसे समझकर दूसरों को समझा पाता हूँ तभी आप प्रमाणित होते हैं। इस तरह समझदारी परंपरा के रूप में बहती है। नासमझी परंपरा में बह नहीं सकती। समझदारी की वस्तु में विविधता नहीं होती। विविधता होती है तो प्रस्तुति में। इसलिए पीढ़ी दर पीढ़ी और सुदृढ़ होगी, प्रखर होगी। सही करने का तरीका और प्रखर होता जाता है। सही करने की सार्थकता और

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