जीवन अक्षय बल, अक्षय शक्ति सम्पन्न है। इस विधि से समाधान के बाद समाधान को प्रकाशित, प्रमाणित निरंतर करते ही रहते हैं और जीवन तृप्त बना ही रहता है। ‘जीवन’ स्थिति में बल व गति में शक्ति है। गति में होने वाली क्रियाएं एक दूसरे के परस्परता में प्रमाणित होते हैं। स्थिति में रहने पर क्रियाओं का अनुभव होता है। हम जितने भी आस्वादन किये इससे हम तृप्त हुये कि नहीं ये हमको पता लगता है। जितना हम तुलन किया उससे हमको तथ्य मिला कि नहीं। सच्चाई को हम साक्षात्कार अनुभवपूर्वक (चिंतन) किया, बोध विधि से चिंतन किया, अनुभव किया। इससे तथ्य मिला कि इस बारे में हम निरंतर प्रयोजन के अर्थ में परीक्षण करते रहते हैं। परीक्षण करना ही होगा, करेंगे ही, दूसरा कोई रास्ता नहीं है। इन पाँचों अवस्थाओं में तृप्ति ही कुल मिलाकर सतत सुखी होने का रास्ता बनता है। इसी को सुख, शांति, संतोष, आनन्द नाम देते हैं। इन्हीं पाँच अवस्थाओं में प्रमाणित होने से मानव का वैभव स्वयं में स्वराज्य के रूप में प्रतिष्ठित रहता है। मानव मानवीयता से परिपूर्ण होकर वैभवित होना ही राज्य का मतलब है। व्यवस्था में जीना ही राज्य है, स्वराज्य है। स्वयं प्रेरित होकर व्यवस्था में जीना ही स्वराज्य है। इस प्रकार से, मानवीयतापूर्ण आचरण ही इसकी व्याख्या है। स्वयं में, परिवार में, समाज में, प्रकृति में, व्यवस्था में जो संबंध है उसको सार्थक बनायेगा यही मानव की जागृति सहज वैभव है। संबंध और मूल्यों को सार्थक बनाने के क्रम में ही हम वर्तमान में विश्वास कर पाते हैं। संबंधों को पहचानते नहीं है तो वर्तमान में जीते नहीं है तो विगत में जाते हैं विगत वर्तमान होता नहीं। (विगत के साथ जीना बनता नहीं) भविष्य को सोचते हैं, भविष्य भी वर्तमान होता नहीं। इस तरह से आदमी को कहीं ठौर मिलता नहीं। फलस्वरूप भटकता रहता है। भटकना कोई चाहता नहीं है। परंपरा में दिशा और लक्ष्य निर्देश की व्यवस्था है नहीं। हर मानव चेतना विकास मूल्य शिक्षा से ही समझदार होकर प्रमाणित परम्परा हो सकता है। हर मानव के आचरण में आ सकता है और मानवत्व मूल्यांकित हो पाता है। मानव को समझदारी को सफल बनाना है यही उसका वैभव है, यही मानव का ऐश्वर्य है इसी ऐश्वर्य के साथ मानव अपनी परंपरा को निरंतर सुखमय बना सकता है। सभी पशु संसार, जीव संसार, वनस्पति संसार, पदार्थ संसार के साथ संतुलन पूर्वक व्यवहार कर सकता है उससे जो पूरकता है उसके लिए स्वयं कृतज्ञ होकर उसका उपयोग, सदुपयोग कर सकता है। प्रयोजनशील बन सकता है।
मानव के साथ तो संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति होती है। तृप्ति हमारा वर है, अतृप्ति हमारा वर नहीं है। हर व्यक्ति तृप्त होने के आसार में समाधान, समृद्धि, वर्तमान में विश्वास और व्यवस्था में जीना सहअस्तित्व को प्रमाणित करना ही है। सत्य का स्वरूप इस ढंग से आया अस्तित्व ही परम सत्य है, निरंतर रहने वाली वस्तु अस्तित्व ही है और अस्तित्व, सहअस्तित्व स्वरूप है, सहअस्तित्व ही निरंतर प्रभावशील है। फलस्वरूप विकास व जागृति प्रकट होता है, विकास क्रम होता है। विकसित हो जाते हैं, जीवन्त हो