जाते हैं। विकासक्रम में भौतिक-रासायनिक वस्तु के रूप में निरंतर कार्यरत है। जीवन कितनी संख्या होना है इसका निश्चयन भी सहअस्तित्व सहज विधि से आता है भ्रमित मानव क्रम से आता नहीं। अस्तित्व स्वयं अपनी विधि से चारों अवस्थाओं को प्रकाशित कर चुका है। इसमें मानव का कोई योगदान नहीं है। मानव स्वयं को अन्य प्रकृति के साथ पूरक होने के प्रमाण रूप में प्रमाणित कर नहीं पाया बल्कि उल्टे शोषण करता रहा है। शोषण से मानव कैसे सुखी होने की कामना किया, यह सोचने का मुद्दा है। शोषण से सुखी होने के बारे में सब राज्य, सब समुदाय, सब धर्म, अधिकांश परिवार सोचते हैं। जहाँ तक राज्य और समुदाय की मान्यता है शोषण पूर्वक ही सुखी हो सकता है। आज तक यही अंतिम बात है और विज्ञान भी इसका समर्थक है कि संघर्ष और शोषण पूर्वक ही मानव अपने अस्तित्व को बचाये रख सकता है। अस्तित्व से यहाँ मतलब अपनी जाति, समुदाय से है। संघर्ष का मतलब है जिसकी लाठी उसकी भैंस। संघर्ष करना ही विकास माना जाता है। जो देश ज्यादा युद्ध कर सकता है, ज्यादा व्यापार बुद्धि का उपयोग कर पाते हैं, ज्यादा शोषण कर सकता है उसे विकसित देश कहा जाता है। जबकि विकसित देश वही है जो जागृत हो गया है। व्यवस्था में है, समाधानित है, समृद्ध है, अपने में विश्वास करता है, सहअस्तित्व को समझता है।
जीवन, जीवन को समझने वाला और जीवन अस्तित्व को समझने वाला तरीका भिन्न है। जहाँ तक भौतिक रासायनिक वस्तुएं है इनको हम प्रयोगपूर्वक उपयोगिता के आधार पर पहचान लेते हैं। उपयोगिता को हम सामान्य आंकाक्षा और महात्वाकांक्षा के रूप में पहचानते हैं। सामान्य आकांक्षा है आहार, आवास, अलंकार (साधन)। महात्वाकांक्षा है -दूरगमन, दूरश्रवण, दूरदर्शन। इनमें से अधिकांश भाग तो पहचान लिए गये हैं उत्पादन भी कर लिए हैं। इसको सर्वसुलभ करने का प्रयत्न भी व्यापार विधि से किए हैं। व्यापार विधि में लाभ की प्रतीक्षा रहती ही है।
जीवन का विश्लेषण क्रिया के आधार पर हम यह पहचान पाते हैं कि हमको किन-किन वस्तुओं की आवश्यकता है। फिर उन आवश्यकताओं को पहचान कर हम उत्पादन करते हैं और समृद्धि का अनुभव करते हैं। जैसे ही हम समृद्धि का अनुभव करते हैं वैसे ही हम व्यवस्था में जीना शुरू कर देते हैं इसलिए हमारे विद्यार्थियों को सर्वप्रथम स्वायत्त बनाने की जरूरत है और उसके बाद परिवार में प्रमाणित होने योग्य प्रवृत्ति और फिर समग्र व्यवस्था में जीने की आवश्यकता है। इन तीनों स्थितियों में प्रमाणित होना मानव का सौभाग्य है। ऐसा सौभाग्यशाली बनने के लिए मानव की स्वयंस्फूर्त आवश्यकता ही एकमात्र आधार है। यदि ऐसी आवश्यकता बनती है तो इस प्रस्ताव को मनोयोगपूर्वक, अध्ययन पूर्वक अपने को प्रमाणित करना सहज है।